परदा

(इस्लाम में पददा और औरत की हैसियत)

मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी (रह.) अनुवाद डॉ. कौसेर यज़दानी नदवी

विषय-सूची

. समस्या क्‍या है? 7-26 5. कुछ और मिसाले 79-93 यूनान [ | बच्चों पर वासनात्मक माहौल का रोम [3 | असर ही कि ईसाई यूरोप | 35] [शिक्षा का दौर | आधुनिक यूरोप |_9| तीन शक्तिशाली उत्ग्रेरक | &3 | मानवीय चिन्तन की दर्दनाक अश्लीलता का बाहुल्‍य | 84 | नाकामी | | गुप्त रोग | $6 | 2. आधुनिक युग का मुसलमान 27-35 तलाक़ और जुदाई ध्ए ऐतिहासिक पृष्टभूमि थ्य राष्ट्रीय आत्महत्या | 89 | मानसिक दासता | | इ्लैंड की हालत | 9 | परदे के सम्बन्ध में बहस की 6. निर्णायक प्रश्न 94-708 शुरुआत | » | पाश्वात्य संस्कृति से प्रभावित पूर्वी जज | 95 मूल प्रेरक ठ] जया साहित्य | 9 |

हमारा मक़सद

3. विचारधाराएँ 36-50 अठारहर्वी सदी की आज़ादी की

अवधारणा

क़ानून ७-58

बीसर्वी सदी की तरक्की संस्कृति-रचना में यौनाकर्षण का नव-मालथसवादी का असर | ५० | 2९ साहित्य संस्कृति की बुनियादी समस्या | _॥!2 | 4. परिणाम 8-78 अच्छी संस्कृति के आवश्यक तत्त्व | 3 औच्योगिक क्रान्ति और उसके प्रभाव ञ] (3) लैंगिक आकर्षण का संतुलन॒[_ 74 पूजीवादी स्वार्थ | 5 | (2) परिवार की स्थापना 347 लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था | 54 | (3) यौन-अनाचार पर रोक ]24 हक़ीक़्ते और गवाहियाँ 57 (4) बेहयाई की रोक-थाम के उपाय | 39 नैतिक चेतना का अभाव 57 (5) दाम्पत्य-सम्बन्ध का सही रूप | १44 | अश्लीलता और बेहयाई की वृद्धि 62 8. इंसानी कमज़ोरियाँ ... 759-& बाघना और अश्लीलता की नाकामी की असूल वजह 59 महामारी | «| क़ौमी तबाही की निशानियाँ | | अप कप | | कि शारीरिक शक्तियों की गिरावट क्र इसकी वजह? 67

पारिवारिक व्यवस्था की बर्बादी 72 इस्लामी क़ानून के सन्तुलन की नस्‍्ल-हत्या 75 ख़्बी हल 68

ज़िना (व्यभिचार) की सज़ा

7 9,.इस्लाम की सामाजिक... व्यभिचार की झूठी तोहमत लगाने ज्यवस्था पा0-ा5 की सज़ा 29 () मौलिक सिद्धान्त 70 रोक-थाम के उपाय 220 युगलता का बुनियादी मतलब. 70 'लिबास और सत्र के नियम | 220 | इंसान की हैबानी प्रकृति और उसके मर्दों के लिए सत्‌र (जिस्म ढाँकने) तक़ाज़े 74 की सीमाएँ दा इंसानी प्रकृति और उसके तक़ाज़े 76 औरतों के लिए सत्र (जिस्म | «४ | 40 इस्लामी सामाजिक ढाँकने) की सीमाएँ हरा व्यवस्था 36284 इजाज़त चाहना 225 (2) सिद्धान्त और मौलिक तत्त्व : एकांत मिलन और स्पर्श का निषेध | 2 महरम लोग 82 महरफमों और गैर-महरमों के बीच ज़िना (व्यभिचार) का निषेध | !85 | फर्क के ; | | पठ. परदे से सम्बन्धित आदेश 2330-35 _| खानदान का गठन 85 निगाह नीची रखना | 23 | मर्द की प्रधानता | 786 | कर्ज (औरत का कार्य क्षेत्र ____ 88 (ज़रूरी पाबन्दियाँ___ | 79 | | 393 | | 9 | भ्र4 [सामाजिक अधिकार__ | % | हु ग7 औरतों की तालीम 96 98 258 औरत का असली उद्धार 97 प्रह्थिवत कक आर 44, इस्लामी सामाजिक उसकी हें 50039 259 व्यवस्था 205-229 [ छ) ररक्षण [ 2७ ] मस्जिद में आने की शर्ते | 62 | अतंःकरण का सुधार 207 पुण आरकश की करा | 2७ | हवा... लक जुमा और दोनों ईदों की नमाज़ों में हलक चर ह्नप औरतों का शरीक होना कक जज़र का फितना ग्रह क़ब्रों की ज़ियारत और जनाज़ों में ना कि जल 'का शरीक होना हा | ज़बान का फ़ितना | श। | ] ुः 9. आवाज़ का फ़ितना श2 40022 खबुशबू का फ़ितना | 23 | नंगेपन का फ़ितना 243 दण्ड-संहिता 25

“दयावान, कृपाशील अल्लाह के नाम से।*

दो शब्द

स्त्री ख़ुदा की एक महान कृति है। उसका मानव-समाज में एक महत्त्वपूर्ण स्थान - है। स्त्री के प्रति यह कह देना कोई अतिशयोक्ति होगी कि वह समाज के लिए

ईश्वर-प्रदत्त एक बहुमूल्य रत्न है। अतः जो वस्तु जितनी मूल्यवान और महत्वपूर्ण होती है वह उत्तनी ही अधिक सम्मान, सुरक्षा एवं संरक्षण की अपेक्षा करती है। इसी लिए सत्यवादी दृष्टिकोण स्त्री का सम्मान, रक्षा और उसकी हिफ़ाज़त करना समाज का सदैव परम कर्तव्य मानता है।

प्रस्तुत पुस्तक इन्ही विषयों पर इस्लामी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है। विद्वान लेखक ने तुलनात्मक अध्ययन के उद्देश्य से विश्व के अन्य सम्प्रदायों के दृष्टिकोण, मत और तात्कालिक वैश्विक समाज में स्त्री की दशा का भी अवलोकन कराया है।

यह पुस्तक मूलत; उर्दू में लिखी गई थी और उर्दू ही में प्रथमत: प्रकाशित भी हुई। बाद में विभिन्‍न भाषाओं में इसके अनुवाद प्रकाशित हुए। हिन्दी में भी यह पुस्तक कई वर्षों से प्रकाशित होती रही है.|

चूंकि यह पुस्तक अब से कई वर्षों पूर्व (939 ई. में) लिखी गई थी इसलिए इसमें दिए गए आंकड़े और प्रस्थितीय विवरण उसी समय के हैं, जिसमें आज बहुत कुछ परिवर्तन हो गया है। अतः पाठकों से अनुरोध है कि इस पुस्तक का अध्ययन करते समय इस तथ्य को अपनी दृष्टि में रखें।

इस किताब के पिछले संस्करण में कुछ ब्रुटियाँ रह गई थी जिसपर हमें खेद है, इस नवीन एवं संशोधित संस्करण में उन्हें सुधार दिया गया है। इस नवीन एवं स्लंशोधित संस्करण के अनुवाद को सुधारने और उपयोगी बनाने में जिन महातुभावों का सहयोग प्राप्त हुआ है उनमें जनाब ज़ैनुल-आबिदीन मंसूरी, सनाउल्‍लाह, मुहम्मद इलियास हुसैन, एस. कौसर लईक्, सैयद ख़ालिद निज़ामी और मुहम्मद शुऐेब साहब का नाम उल्लेखनीय है। हम सभी सहयोगकर्ताओं के आभारी हैं।

पूर्ण प्रयास के उपरांत भी ब्रुटि एंव ग़लतियों का रह जाना सम्भव है। अतः पाठकों से अनुरोध है कि यदि कहीं कोई त्रुटि नज़र आए तो हमें उससे अवगत कराएँ। हम आपके आभारी होंगे।

ख़ुदा से दुआ है कि यह पुस्तक हमारे देश और समाज के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो!

-नसीम ग़ाज़ी फ़लाही (अध्यक्ष) इस्लामी साहित्य ट्रस्ट (दिल्ली)

सांकेतिक शब्दार्थ

संक्षिप्त रूप में इस्तेमाल कुछ ऐसे शब्द इस किताब में आएँगे जिनकी : मुकम्मल शक्ल और मतलब किताब के अध्ययन से पहले जान लेना ज़रूरी है,

ताकि अध्ययन के दौरान कोई परेशानी हो। वे शब्द निम्नलिखित हैं :

अलैहि०/अलै० : इसकी मुकम्मल शक्ल है अलैहिस्सलाम, यानी “'उनपर सलामती हो !”' नबियों और फ़रिश्तों के नाम के साथ यह आदर और प्रेम सूचक शब्द बढ़ा देते हैं।

रज़ि० : इसका पूर्ण रूप है रज़ियल्लाहु अन्हु इसके मानी हैं, “' अल्लाह उनसे राज़ी हो !”' सहाबी के नाम के साथ यह आदर और प्रेम-सूचक दुआ बढ़ा देते हैं

सहाबी उस ख़ुशक़रिस्मत मुसलमान को कहते हैं जिसे नबी (सल्ल०) से मुलाक़ात का मौक़ा मिला हो | सहाबी का बहुवचनसहाबा है और स्त्रीलिंग सहाबिय: है। हु

रज़ि० अगर किसी सहाबिय: के नाम के साथ इस्तेमाल हुआ हो तो रज़ियल्लाहु अन्हा पढ़ते हैं और अगर सहाबा के लिए आए तो रज़ियल्लाहु अन्हुम कहते हैं।

सल्ल० : इसका पूर्ण रूप है सल्‍लल्लाहु अलैहि सल्‍लम, जिसका मतलब है, '' अल्लाह उनपर रहमत और सलामती की बारिश करे!” हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) का नाम लिखते, लेते या सुनते हैं तो आदर और प्रेम के 'लिए दुआ के ये शब्द बढ़ा देते हैं। "

रह० : इसका पूर्ण रूप है रहमतुल्लाह अलैहि, यानी अल्लाह की 'उनपर रहमत हो | नबियों और सहाबी के अलावा किसी अन्य बुज़ुर्ग के नाम के साथ आदर और प्रेम के लिए दुआ के ये शब्द बढ़ा देते हैं।

अध्याय-7

समस्या क्‍या है?

भानव-सभ्यता की सबसे अहम और सबसे ज़्यादा पेचीदा समस्याएँ दो हैं, जिनके सही और संतुलित हल पर इंसान की भलाई और तरक्की निर्भर है और जिनको हल करे में बहुत प्राचीन काल से आज तक दुनिया के विचारक और विद्वान परेशान और प्रयत्नशील रहे हैं। पहली समस्या यह है कि सामूहिक जीवन में औरत और मर्द का सम्बन्ध किस तरह क़ायम किया जाए, क्योंकि यही सम्बन्ध असल में सभ्यता की आधारशिला है और इसका हाल यह है कि अगर इसमें ज़रा-सी भी टेढ़ जाए तो आसमान तक दीवार टेढ़ी ही चली जाए। और दूसरी समस्या व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध की है, जिसका सन्तुलन स्थापित करने में अगर तनिक भर भी कमी रह जाए तो सदियों तक इंसानी दुनिया को इसके कड़वे नतीजे भुगतने पड़ते हैं।

एक ओर इन दोनों समस्याओं की अहमियत का यह हाल है, दूसरी ओर इनकी पेचीदगी इतनी बढ़ी हुई है कि जब तक प्रकृति के तथ्यों पर किसी की पूरी नज़र हो, वह इनको हल नहीं कर सकता। सच कहा था, जिसने भी कहा था कि इंसान एक छोटी-सी दुनिया है। उसके शरीर की बनावट, उसके मन- मस्तिष्क की संरचना, उसकी ताक़तें, उसकी योग्यताएँ, उसकी इच्छाएँ, चाहरतें और ज़रूरतें, उसकी भावनाएँ और अपने बुजूद से बाहर की बहुत-सी चीज़ों के साथ उसके प्रभाव डालने और प्रभाव ग्रहण करने के ताल्लुक़ात, ये सब चीज़ें एक दुनिया-की-दुनिया अपने भीतर रखती हैं। इंसान को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता, जब तक कि उस दुनिया का एक-एक हिस्सा निगाह के सामने रौशन हो जाए और इंसानी ज़िंदगी की बुनियादी समस्याएँ हल नहीं की जा सकतीं, जब तक कि ख़ुद इंसान को पूरी तरह समझ लिया जाए।

यही वह पेचीदगी है जो बुद्धि विवेक के सारे प्रयत्नों का मुकाबला शुरू से कर रही है और आज तक किए जा रही है। एक तो इस दुनिया की तमाम हक़ीक़तें अभी तक इंसान पर खुली ही नहीं। इंसानी ज्ञानों में से कोई ज्ञान भी

पर्दा य्

ऐसा नहीं है जो परिपूर्णता के अन्तिम चरण पर पहुँच चुका हो, यानी जिसके बारे में यह दावा किया जा सकता हो कि जितनी हक़ीक़तें ज्ञान के इस क्षेत्र से ताल्लुक़ रखती हैं उन सबको उसने मालूम कर लिया है। मगर जो तथ्य प्रकट हो चुके हैं उनकी व्यापकताओं और बारीकियों का भी यह हाल है कि किसी इंसान की, बल्कि इंसानों के किसी गरोह की, नज़र भी उन सब पर एक ही समय में हावी नहीं होती। एक पहलू सामने आता है और दूसरा पहलू नज़रों से ओझल रह जाता है। कहीं नज़र चूक जाती है और कहीं व्यक्तिगत रुझान नज़र के सामने परदा बन जाते हैं। इस दोहरी कमज़ोरी की वजह से इंसान ख़ुद अपनी ज़िंदगी की उन समस्याओं को हल करने के जितने उपाय भी करता है, वे नाकाम होते हैं और तजुर्बा आख़िरकार उनके दोष को उजागर कर देता है। सही हल सिर्फ़ उसी समय संभव है जबकि संतुलन-बिन्दु को पा लिया जाए और .संतुलन-बिन्दु पाया नहीं जा सकता जब तक कि तमाम हक़ीक़तें सही, कम- से-कम जानी-पहचानी हक़ीक़तों ही के सारे पहलू समान रूप से निगाह के सामने हों। मगर जहाँ दृश्य की व्यापकता अपने आएमें इतनी ज़्यादा हो कि निगाह उसपर छा सके और इसके साथ इंसान के मन की इच्छाएँ, रुचि और ध्रृणा के झुकावों की यह प्रबलता हो कि जो चीज़ें साफ़ नज़र आती हों, उनकी ओर से भी निगाह स्वत: फिर जाए, वहाँ संतुलन-बिन्दु किस तरह मिल सकता है? वहाँ तो जो हल भी होगा उसमें अवश्य ही अतियाँ पाई जाएँगी, या इस ओर की या उस ओर की।

ऊपर जिन दो समस्याओं का उल्लेख किया गया है, उनमें से सिर्फ़ पहली समस्या पर हम वार्ता करेंगे। इस सिलसिले में जब हम इतिहास पर निगाह डालते हैं तो हमको अतियों की खींच-तान का एक अनोखा क्रम दिखाई देता है। एक ओर हम देखते हैं कि वही औरत जो माँ की हैसियत से आदमी को जन्म देती है और बीवी की हैसियत से ज़िंदगी की हर ऊँच-नीच में मर्द की साथी रहती है, सेविका, बल्कि दासी के दर्ज में रख दी गई है। उसको बेचा और ख़रीदा जाता है। उसको मिल्कियत और विरासत के तमाम हक़्ों से महरूम रखा जाता है। उसको साक्षात्‌ पाप और अपमान समझा जाता है और उसके व्यक्तित्व को उभरने और विकसित होने का कोई मौक़ा नहीं दिया

] परदा

जाता | दूसरी ओर हमें यह नज़र आता है कि वही औरत उठाई और उभारी जा रही है, शान से कि उसके साथ दुराचार और अराजकता का तूफ़ान भी उठ रहा है। वह हैवानी इच्छाओं का खिलौना बनाई जाती है। उसको वास्तव में शैतान का एजेंट बनाकर रख दिया जाता है और उसके उभरने के साथ मानवता के गिरने का सिलसिला शुरू हो जाता है।

इन दोनों अतियों को हम केवल विचारात्मक दृष्टि से न्‍्यूनाधिक के नामों से परिभाषित नहीं करते, बल्कि तजुर्बा जब इनके बुरे नतीजों का पूरा-पूरा रिकार्ड हमारे सामने लाकर रख देता है तब हम नैतिकता की भाषा में एक अति को विस्तार और दूसरी को संकोच कहते हैं। इतिहास बताता है कि जब एक क़ौम असभ्यता के दौर से निकलकर संस्कृति और सभ्यता की ओर बढ़ती है तो उसकी औरतें, लौंडियों और सेबिकाओं की हैसियत से उसके मर्दों के साथ होती हैं। शुरू में असभ्य ताक़तों का ज़ोर उसे आगे बढ़ाए लिए जाता है, मगर सभ्यता की एक ख़ास मंज़िल पर पहुंचकर उसे महसूस होता है कि अपनी आबादी के पूरे आधे हिस्से को पस्ती की हालत में रखकर वह आगे नहीं जा सकती। उसको अपनी तसर्नक्ती की रफ़्तार रुकती नज़र आती है और ज़रूरत का एहसास उसे मजबूर करता है कि इस दूसरे-आधे को भी पहले-आधे के साथ - चलने के क़ाबिल बनाए। मगर जब वह इस नुक़सान की भरपाई को पूरा करना शुरू करती है तो सिर्फ़ भरपाई पर बस नहीं करती, बल्कि आगे बढ़ती चली जाती है, यहाँ तक कि औरत की आज़ादी से पारिवारिक व्यवस्था (जो सभ्यता की बुनियाद है) ध्वस्त हो जाती है। औरतों और मर्दों के मेल से बेहयाई (अश्लीलता) की बाढ़ जाती है, कामुकता और ऐशपरस्ती पूरी क्ौम के चरित्र को तबाह करती है और चरित्र की गिरावट के साथ बौद्धिक, शारीरिक और भौतिक शक्तियों का पतन भी अवश्य प्रकट होता है। जिसका आख़िरी अंजाम हलाकत बरबादी के सिवा कुछ नहीं

यहाँ इतनी गुंजाइश नहीं है कि इतिहास से इसकी मिसालें अधिक विस्तार के साथ दी जा सकें, मगर अपने मक़सद को स्पष्ट करने के लिए दो-चार मिसालें ज़रूरी हैं।

प्र्दा | 9

यूनान

पुरानी क्रौमों में से जिस क़ौम की सभ्यता सबसे ज़्यादा शानदार नज़र आती है, वह क़ौम यूनानी है। इस क़ौम के शुरू के दौर में नैतिक दृष्टिकोण, ज़््यायिक अधिकार और समाजी बर्ताव, हर एतिबार से औरत की हैसियत बहुत गिरी हुई थी। यूनानी मिथक (४५/४॥००४५) में एक काल्पनिक औरत पांडोरा (2008) को उसी तरह तमाम इंसानी मुसीबतों का कारण बता दिया गया था, जिस तरह यहूदी मिथकों में हज़रत हव्वा (अलै.) को बताया गया है। हज़रत हव्वा (अलै.) के बारे में इस ग़लत कहानी की शोहरत ने औरत के बारे में यहूदी और ईसाई क़ौमों के रवैये, क़ानून, सामाजिक नियम, चरित्र और हर चीज़ पर जिस तरह असर डाला है, वह किसी से छिपा नहीं है। क़रीब-क़रीब ऐसा ही असर पांडोरा के अंधविश्वास का यूनानी ज़ेहन पर भी हुआ था। उनकी निगाह में औरत एक मामूली दर्ज की प्राणी थी। रहन-सहन के हर पहलू में उसका दर्जा गिरा हुआ रखा गया था और इज़्ज़त का दर्जा मर्द के लिए ख़ास कर दिया गया था। पु

सभ्यता की तरक़क़ी के शुरू.के मरहलों में यह तरीक़ा थोड़े रद्दोबदंल के साथ बाक़ी रहा। संस्कृति और ज्ञान की रौशनी का सिर्फ़ इतना असर हुआ कि औरत का क़ानूनी दर्जा तो ज्यों का त्यों रहा, अलबत्ता रहन-सहन के मामले में उसको कुछ और ऊँची हैसियत दे दी गई। वह यूनानी घर की रानी थी। उसके कर्त्तव्यों का दायरा घर तक सीमित था और इन हदों में उसे पूरे इस्तियार हासिल थे। उसकी आबरू एक क़ीमती चीज़ थी जिसको क़॒द्र और इज़्ज़त की निगाह से देखा जाता था। शरीफ़ यूनानियों के यहाँ परदे का रिवाज था। उनके घरों में ज़नानख़ाने मर्दानख़ानों से अलग होते थे। उनकी औरतें मिली-जुली महफ़िलों में शरीक होती थीं, खुलेआम सामने लाई जाती थीं | निकाह (विवाह) के ज़रीए किसी एक मर्द के साथ वाबस्ता होना औरत के लिए शराफ़त की बात थी और इसमें उसी की इज़्ज़त थी। वेश्या बनकर रहना उसके लिए अपमानजनक समझा जाता था। यह उस ज़माने का हाल था जब यूनानी क़ौम ख़ूब ताक़तवर थी और पूरे ज़ोर के साथ तरक़क़ी की सीढ़ियाँ तय कर रही थी। उस दौर में नैतिक दोष ज़रूर पाए जाते थे, मगर वे एक हद के अन्दर थे। यूनानी

0 परवा

औरतों से चरित्र की जिस सुथराई, पवित्रता और पाकदामनी की अपेक्षा की जाती थी वह मर्दों से नहीं की जाती थी। उनसे इसकी माँग थी और नैतिक दृष्टि से किसी मर्द से यह उम्मीद की जाती थी कि वह पाक ज़िंदगी बसर करेगा। वेश्याएँ यूनानी समाज का अटूट हिस्सा थीं और उनसे ताल्लुक़ रखना मर्दों के लिए किसी तरह भी कोई ऐब समझा जाता था।

धीरे-धीरे यूनानियों पर वासना और कामुकता का रंग चढ़ना शुरू हुआ।

उस दौर में वेश्याओं को वह तरक़क़ी मिली जिसकी मिसाल पूरे मानव-इतिहास में नहीं मिलती | वेश्या का कोठा यूनानी समाज के छोटे से लेकर ऊँचे तबक़े तक हर एक के पहुँचने की जगह और केन्द्र बना हुआ था। दार्शनिक, कवि, इतिहासकार, साहित्यकार और कला विशेषज्ञ, अर्थात्‌ ये सब ग्रह उसी सूर्य के चारों ओर घूमते थे। वह सिर्फ़ ज्ञान और साहित्य की महफ़िलों की अध्यक्षा: थी, बल्कि बड़े-बड़े राजनीतिक मामले भी उसी के समक्ष तय होते थे। क़्ौम की ज़िंदगी मौत का फ़ैसला जिन बातों से जुड़ा हुआ था, उनमें उस औरत की राय को अहमियत दी जाती थी जिसकी दो रातें भी किसी एक व्यक्ति केःसाथ वफ़ादारी में बसर होती थीं | यूनानियों की सौन्दर्य-प्रियता और हुस्नपरस्ती ने उनमें वासना और कामुकता की आग को और ज़्यादा भड़काया | वे अपनी इस रुचि को जिन प्रतिमाओं (या कला के नंगे नमूनों) में ज़ाहिर करते थे वही उनकी कामवासना को और ज़्यादा भड़काती चली जाती थी, यहाँ तक कि उनके ज़ेहन से यह ख़याल ही निकल गया था कि कोमलिप्तता भी कोई नैतिक दोष है। उनका नैतिक-स्तर इतना बदल गया था कि बड़े-बड़े दार्शनिक और नैतिकता के शिक्षक भी व्यभिचार और बेहयाई (अश्लीलता) में कोई दोष पाते थे और उसे निन्‍दा की कोई चीज़ समझते थे। आमतौर से यूनानी लोग विवाह को * एक गर ज़रूरी रस्म समझने लगे थे और विवाह के बिना औरत और मर्द का ताल्लुक़ बिल्कुल उचित समझा जाता था, जिसको किसी से छिपाने की ज़रूरत थी। आखिरकार उनके धर्म ने भी उनकी पाशविक इच्छाओं के आगे हथियार डाल दिए। कामदेवी (89/700॥/2) की पूजा तमाम यूनान में फैल गई, जिसकी दास्तान उनके मिथकों में यह थी कि एक देवता की बीवी होते हुए

. लगभग यही स्थिति आधुनिक युग में [4४७-॥-रेश३४०॥७' की है | (प्रकाशक)

पर्दा $ * ॥8ै॥

उसने तीन दूसरे देवताओं से आशनाई कर रखी थी, और उनके अलावा एक नश्वर इंसान को भी उस के दरबार में जगह पाने का सौभाग्य प्राप्त था। उसी के पेट से मुहब्बत का देवता क्यूपिड पैदा हुआ जो उस देवी और उस के रैर- क़ानूनी दोस्त की आपसी लगावट का नतीजा था। यह उस क़ौम की उपास्या थी, और अन्दाज़ा किया जा सकता है कि जो क़ौम ऐसे कैरेक्टर को सिर्फ़ आदर्श बल्कि उपास्य तक का दर्जा दे दे, उसके नैतिक स्तर की गिरावट का क्या हाल होगा? यह नैतिक गिरावट का वह दर्जा है जिसमें गिरने के बाद कोई क्रौम फिर कभी उभर सकी। भारत में वाम मार्ग और ईरान में मज़ूकियत (मानी धर्म) ऐसे ही गिरावट के दौर में प्रकट हुई। बाबिल (8७907) में भी वेश्या-वृत्ति को धार्मिक पवित्रता का दर्जा ऐसे ही हालात में हासिल हुआ जिसके बाद फिर दुनिया ने कभी बाबिल (80907) का नाम भूली-बिसरी कहानी के सिवा किसी दूसरी हैसियत से सुना। यूनान में जब कामदेवी की पूजा शुरू हुई तो वेश्यालय इबादतगाह में बदल गया। वेश्याएँ देवदासियाँ बन गई और व्यभिचार तरक्की करके एक पवित्र धार्मिक कर्म के दर्जे तक पहुँच

गया।

इसी कामलिप्तता का एक दूसरा रूप यह था कि यूनानी क़ौम में समलैंगिक यीनाचार एक महामारी की तरह फैला और धर्म और नैतिकता ने इसका भी स्वागत किया। होमर और हस्यूड के ज़माने में इस कर्म का नाम निशान तक नहीं मिलता, मगर सभ्यता की तरक़्क़ी ने जब आर्ट और सौन्‍्दर्य-प्रियता (&४77०(४८७) के सभ्य नामों से नग्नता और काम वासना की बन्दगी को सराहना शुरू किया तो कामोत्तेजना बढ़ते-बढ़ते इस हद तक पहुँच गई कि प्रकृति के रास्ते से आगे बढ़कर यूनानियों को अप्राकृतिक तरीक़े में काम-तृप्ति की खोज करनी पड़ी। आर्ट के भाहिरों ने इस जज़्बे को प्रतिमाओं में उजागर किया। नैतिकता की शिक्षा देनेवालों ने इसको दो आदमियों के बीच “दोस्ती का मज़बूत रिश्ता' क़रार दिया।' सबसे पहले दो यूनानी इंसान जो इस सम्मान

4. अब आधुनिक काल में इस लानत की आग पुरुष-पुरुष के बीच 'गे! (599) के रूप में --- और साथ ही ...स्त्री-स्त्री के बीच “'लज़्बियन (259था) के रूप में, पाश्चात्य देशों में फैलकर भारत में भी फैलने लगी है। .. (प्रकाशक)

42 परदा

के हक़दार समझे गए कि उनके वतन के लोग उनकी प्रतिमाएँ बनाकर उनकी याद ताज़ा रखें, वे हरमूडियस और आरिस्टोगेटन थे जिनके बीच अप्राकृतिक प्रेम का ताल्लुक़ था।

इतिहास गवाह है कि उस दौर के बाद यूनानी क़ौम को ज़िंदगी का कोई दूसरा दौर फिर नसीब नहीं हुआ।

रोम

यूनानियों के बाद जिस क़ौम को दुनिया में तर्क्ती मिली, वे रोम के लोग थे। यहाँ फिर वही उतार-चढ़ाव की तस्वीर हमारे सामने आती है जो ऊपर आप देख चुके हैं। रोमन असभ्यता के अंधेरे से निकलकर जब इतिहास के रौशन दौर में दाख़िल होते हैं तो उनकी सामाजिक व्यवस्था का नक़्शा यह होता है कि मर्द अपने ख़ानदान का सरदार है, उसको अपनी बीबी-बच्चों पर पूरे मालिकाना ' हक़ हासिल हैं, बल्कि कुछ हालतों में वह बीवी को क़त्ल भी कर देने का हक़ रखता है।

जब बर्बरता में कमी आई और सभ्यता और संस्कृति में रोमनों का क़दम आगे बढ़ा तो यद्यपि प्राचीन ख़ानदानी व्यवस्था बाक़ायदा क़ायम रही, लेकिन व्यवहारत: उसकी सछ््तियों में कुछ कमी पैदा हुई और एक हद तक सन्तुलित स्थिति पैदा होती गई। गेमन लोकतंत्र की तरक़क्ी के ज़माने में यूनान की तरह परदे का रिवाज तो था, मगर औरत और जवान नस्ल को ख़ानदानी व्यवस्था में कसकर रखा गया था। पाकदामनी और सतीत्व ख़ास तौर से औरत के मामले में एक क़ीमती चीज़ थी और उसको शराफ़त का मेयार समझा जाता था। चरित्र का स्तर काफ़ी ऊँचा था। एक बार रोमन सीनेट के एक मेम्बर ने अपनी बेटी के सामने अपनी बीवी का चुम्बन लिया तो उसको राष्ट्रीय चरित्र की बड़ी तौहीन समझा गया और सीनेट में उस पर निन्दा-प्रस्ताव पास किया गया। औरत और मर्द के ताल्लुक़ की जायज़ और शरीफ़ाना शक्ल विवाह के सिवा कोई दूसरी थी। एक औरत उसी वक़्त इज़्ज़त की हक़दार हो सकती थी जब 'कि वह एक ख़ानदान की माँ ((७70/) हो। वेश्याएँ अगरचे मौजूद थीं और मर्दों को एक हद तक इस वर्ग से ताललुक़ रखने की आज़ादी भी थी, मगर आम

हि 83

रोमनों की निगाह में उसकी हैसियत अत्यन्त निन्दनीय थी और उनसे ताल्लुक़ रखनेवाले मर्दों को भी अच्छी नज़र से देखा जाता था।

सभ्यता और संस्कृति की तरक्की के साथ-साथ रोमवासियों का नज़रिया औरत के बारे में बदलता चला गया और धीरे-धीरे निकाह (विवाह) तलाक़ के क़ानून और पारिवारिक व्यवस्था के सृजक तत्त्वों में इतनी तब्दीली हुई कि स्थिति पिछले हालात से बिलकुल उलट गई। विवाह सिर्फ़ एक क़ानूनी समझौता ((५] (0०॥08८) बनकर रह गया, जिसका क्रायम होना और ज़िंदा रहना दोनों फ़रीक़ों (पक्षों) की रज़ामंदी पर आश्रित था। दाम्पत्य-सम्बन्ध की ज़िम्मेदारियों को बहुत हल्का समझा जाने लगा। औरत को विरासत और माल की मिल्कियत के पूरे हक़ दे दिए गए और क्रानून ने उसको बाप और शौहर के इक््तितदार (प्रभुत्त) से बिलकुल आज़ाद कर दिया। रोमन औरतें आर्थिक हैसियत से सिर्फ़ ख़ुदमुख़्तार हो गईं, बल्कि राष्ट्रीय सम्पत्ति का एक बड़ा हिस्सा क्रमश: उनके अधिकार में चला गया। वे अपने शौहरों को भारी ब्याज- दर पर क़ार्ज़ देती थीं और मालदार औरतों के शौहर अमली तौर पर उनके गुलाम बनकर रह जाते थे। तलाक़ की आसानियाँ इतनी बढ़ीं कि बात-बात पर पति- पत्नी का रिश्ता तोड़ा जाने लगा। मशहूर रोमन दार्शनिक और चिन्तक सेनीका (सन्‌ 04 ई. पू.-056 ई.) सख़्ती के साथ रोमवासियों के ज़्यादा तलाक़ देने पर मातम करता है। वह कहता है कि अब रोम में तलाक़ कोई शर्मनाक बात नहीं रही। औरतें अपनी उम्र का हिसाब शौहरों की तादाद से लगाती हैं। उस दौर में एक औरत एक के बाद एक कर कई-कई शादियाँ करती चली जाती थी। मार्शल (सन्‌ 43 ई.-04 ई.) एक औरत का ज़िक्र करता है जो दस शौहर कर चुकी है। जुवेनल (सन्‌ 60 ई.-04 ई.) एक औरत के बररे में लिखता है. कि उसने पाँच साल में आठ शौहर बदले। सेंट जेरोम (340 ई.-420 ई.) उन सबसे ज़्यादा एक बाकमाल औरत का हाल लिखता है जिसने आख़िरी बार तेईसवाँ शौहर किया था और अपने शौहर की भी वह - इक्कीसवीं बीवी थी।

उस दौर में औरत और मर्द के अवैवाहिक सम्बन्ध को बुरा समझने का ख़याल भी दिलों से निकलता चला गया, यहाँ तक कि नैतिकता के बड़े-बड़े

वव परदा

शिक्षक भी व्यभिचार को एक मामूली चीज़ समझने लगे। केटो' (0४०), जिसको सन्‌ 84 ई. पू. में रोम के अख़लाक़ का निगराँ मुक़र्रर किया गया था, जवानी के आवारापन को उचित ठहराता है। सिसरो जैसा आदमी नौजवानों के लिए अख़लाक़े के बन्धन ढीले करने की सिफ़ारिश करता है, यहाँ तक कि एपिक्टेट्स (89००४७), जो आत्मसंयमी दार्शनिकों (७४००७) में बहुत ही कड़े नैतिक नियमों का धारक समझा जाता था, अपने शिष्यों को हिदायत करता है कि जहाँ तक हो सके शादी से पहले औरत की संगति से बचो, मगर जो इस मामले में संयम (कन्ट्रोल) रख सकें उनकी निन्‍दा भी करो।

अख़लाक़ और सामाजिकता के बन्धन जब इतने ढीले हो गए तो रोम में वासना, नम्नता, अश्लीलता और बेहयाई की बाढ़ गई। थियेटरों में बेहयाई और अश्लीलता की नुमाइश होने लगी। नंगी और बहुत ही गंदी तस्वीरें हर घर की सजावट के लिए ज़रूरी हो गईं। वेश्यावृत्ति के कारोबार को वह तर्रक्ी हासिल हुई कि क़ैसर टाइबेरियस (सन्‌ 74 37 ई.) के दौर में शरीफ़ ख़ानदान की औरतों को पेशेवर वेश्या बनने से रोकने के लिए एक क़ानून लागू करने की ज़रूरत पेश गई। फ़्लोरा (£07४) नामक एक खेल रोमवासियों में बहुत मशहूर्‌ हुआ, क्योंकि उसमें नंगी औरतों की दौड़ हुआ करती थी। औरतों और मर्दों के खुले आम इकट्ठा नहाने का रिवाज भी उस दौर में आम था। रोमन साहित्य में बेहयाई और अश्लीलता की बातें बे-झिझक बयान की जाती थीं और आम और ख़ास लोगों में वही साहित्य पसन्द किया जाता था जिसमें यौन-सम्बन्धी बातों को बयान करने में सांकेतिक शैली तक का परदा भी रखा गया हो। रे

हैवानी ख़ाहिशों और वासनापूर्ण इच्छाओं में इस हद तक जकड़ जाने के बाद रोम के वैभव का महल इस तरह धरती पर ढहा कि फिर उसकी एक ईंट भी अपनी जगह पर क़ायम रही।

ईसाई यूरोप

पश्चिमी दुनिया की इस नैतिक गिरावट का इलाज करने के लिए ईसाइयत पहुँची और शुरू-शुरू में उसने बड़ी अच्छी सेवाएँ कीं। बेहयाई और

परदा 45

अश्लीलता की रोक-थाम की, नमता को ज़िंदगी के हर हिस्से से निकाला और वेश्यावृत्ति को बन्द करने के उपाय किए। वेश्याओं, गायिकाओं और नर्तकियों को उनके पेशे से तौबा कराई और पवित्र नैतिक धारणाएँ लोगों में पैदा कीं। मगर औरत और यौन-सम्बन्धों के बारे में ईसाइयों के धर्मगुरु जो विचार रखते थे, वे एक दूसरी ही चरम सीमा पर थे, और साथ ही यह इंसान के स्वभाव के ख़िलाफ़ लड़ाई का एलान भी था।

उनका आरंभिक और बुनियादी नज़रिया यह था कि औरत गुनाह की जननी और बुराई की जड़ है। पाप के विकास का ग्रोत और जहंन्‍नम का दरवाज़ा है। सारी इंसानी मुसीबर्तों की शुरुआत इसी से हुई है। उसका औरत होना ही उसके शर्मनाक होने के लिए काफ़ी है। उसको अपने हुस्न और ख़ूबसूरती पर शरमाना चाहिए, क्‍योंकि वह शैतान का सबसे बड़ा हथियार है। उसको हमेशा ही इसका प्रायश्चित करते रहना चाहिए, क्योंकि वह दुनिया और दुनियावालों पर लानत और मुसीबत लाई है। तरतूलियान (गए), जो शुरू दौर के ईसाई गुरुओं में से था, औरत के बारे में ईसाई विचारों को इन शब्दों में व्यक्त करता है -

“बह शैतान के आने का दरवाज़ा है, वह वर्जित वृक्ष की ओर ले जानेवाली,' ख़ुदा के क़ानून को तोड़नेवाली, ख़ुदा की तस्वीर-मर्द 'को ग़ारत करनेवाली है।'”

क्राइसोस्टम (0॥775०७पगा), जो ईसाइयों के बड़े सरपरस्तों में गिना जाता है, औरत के बारे में कहता है -

““एक ज़रूरी बुराई, एक पैदाइशी वसवसा, एक पसन्दीदा आफ़त,

* वर्जित वृक्ष' अर्थात्‌ वह पेड़ जिसकी ओर जाने से, बाइबल के (और क्कुरआन के भी) अनुसार, स्वर्ग में अल्लाह ने आदम हव्वा को मना किया था कुरआन के अनुसार शैतान के बहकाने से दोनों ने एक साथ इस आदेश की अवहेलना की, किन्तु बाइबल के अनुसार शैतान के बहकावे में आकर हव्वा ने आदम को बहकाया, अतः हव्वा ही असल मुजरिम थीं | इस तरह वे 'शैतान के आने का दरवाज़ा' हुईं और मर्द को तबाह मारत करनेवाली। (प्रकाशक)

46 परदा

एक घरेलू ख़तरा, एक तबाह करनेवाली प्रीति, एक सजी-सजाई मुसीबत।

उनका दूसरा दृष्टिकोण यह था कि औरत और मर्द का यौन-सम्बन्ध अपने आपमें एक गन्दगी और एक आपत्तिजनक चीज़ है, चाहे वह विवाह की शक्ल - ही में क्यों हो। नैतिकता की यह संन्यासवादी धारणा जो पहले से नव- प्लेटोनिज़्म (१००-०)४०गंधरा) के प्रभाव से पश्चिम में जड़ पकड़ रही थी, ईसाइयत ने आकर इसे हद को पहुँचा दिया। अब अविवाहित साधु और अविवाहिता साध्वी बने रहना नैतिकता का आदर्श बना और गृहस्थी की ज़िंदगी नैतिक दृष्टिकोण से निकृष्ट और तुच्छ समझी जाने लगी। लोग शादियों से बचने को नेकी, पवित्रता और अख़लाक़ की बुलन्दी की चीज़ समझने लगे। पाक मज़हबी ज़िंदगी बसर करने के लिए यह ज़रूरी हो गया कि या तो आदमी विवाह ही करे, या अगर विवाह कर लिया हो तो शौहर और बीवी एक-दूसरे से दाम्पत्य-सम्बन्ध रखें। बहुत-सी मज़हबी मज्लिसों में यह क़ानून बना दिया गया कि चर्च के पदाधिकारी अकेले में अपनी बीवियों से मिले, मियाँ और बीवी की मुलाक़ात हमेशा खुली जगह में हो और कम से कम दो पराए आदमी वहाँ मौजूद हों दाम्पत्य-सम्बन्ध के नापाक होने का विचार तरह-तरह से ईसाइयों के मन में बिठाया जाता था, जैसे कि एक क़ायदा यह था कि जिस दिन चर्च का कोई त्योहार हो, उससे पहले की रात जिन मियाँ-बीवी ने एक साथ गुज़ारी हो, वे त्योहार में शरीक नहीं हो सकते। मानो उन्होंने कोई गुनाह किया है जिसमें लिप्त होने के बाद वे किसी पवित्र मज़हबी काम में हिस्सा लेने के क़ाबिल नहीं रहे। इस संन्यासवादी धारणा ने तमाम ख़ानदानी ताल्लुक़ात, यहाँ तक कि माँ और बेटे तक के ताल्लुक़ में कड़वाहट पैदा कर दी और हर वह रिश्ता गन्दगी और गुनाह बन कर रह गया जो विवाह का नतीजा हो)

इन दोनों नज़रियों ने सिर्फ़ नैतिकता और सामाजिकता में औरत की हैसियत हद से ज़्यादा गिरा दी, बल्कि सांस्कृतिक नियमों को भी इतना प्रभावित - किया कि एक ओर दाम्पत्य जीवन मर्दों और औरतों के लिए मुसीबत बनकर रह गया और दूसरी ओर समाज में औरत का दर्जा हर पहलू से गिर गया। ईसाई

पर्दा 8

शरीअत के प्रभाव-स्वरूप जितने क़ानून पश्चिमी दुनिया में लागू हुए, उन सबकी विशेषताएँ ये थीं -

. आर्थिक रूप से औरत को बिलकुल बेबस करके मर्द के का दे दिया गया | विरासत में उसके हक़ बहुत सीमित थे और मिल्कियत में उससे भी ज़्यादा सीमित। वह ख़ुद अपनी मेहनत की कमाई पर भी इस़्तियार रखती थी, बल्कि उसकी हर चीज़ का मालिक उसका शौहर था|

2. तलाक़ और ख़ुलअ' की तो सिरे से इजाज़त ही थी। मियाँ-बीवी में चाहे कितनी ही दूरी और कर्ता हो, आपसी ताल्लुक़ात की ख़राबी से भले ही घर जहन्नम बन गया हो, मज़हब और क़ानून दोनों उनको ज़बरदस्ती एक-दूसरे के साथ बँथे रहने पर मजबूर करते थे। कुछ अत्यन्त गंभीर हालात में ज़्यादा से ज़्यादा अगर कोई हल निकल सकता था तो बह सिर्फ़ यह था कि मियाँ-बीवी में अलगाव ($८७&:४०४०॥) करा दिया जाए, यानी वे एक-दूसरे से बस अलग कर दिए जाएँ। अलग होकर दूसरे विवाह का हक़ औरत को था, मर्द को। सच तो यह है कि यह हंल। पहली शक्ल से भी बुरा था, क्योंकि इसके बाद उनके लिए इसके सिवा कोई रास्ता था कि या तो वे दोनों राहिब (संन्यासी) और राहिबा (संन्यासिनी) बन जाएँ या फिर तमाम उम्र बदकारी और दुष्कर्म करते रहें।

3. शौहर के मरने पर बीवी के लिए और बीबी के मरने पर शौहर के लिए दूसरा विवाह करना ज़बरदस्त ऐब की बात, बल्कि गुनाह क़रार दिया गया था। ईसाई उलमा कहते थे कि यह सिर्फ़ हैवानी ख़ाहिशों की दासता और मात्र वासनापूर्ति है। उनकी भाषा: में इस कर्म क़ा नाम परिष्कृत व्यभिचार' था। चर्च के क़ानून में मज़हबी ओहदेदारों के लिए दूसरा विवाह करना जुर्म था। देश के आम क़ानूनों में कुछ जगहों पर इसकी सिरे से इजाज़त ही थी, और जहाँ क़ानून इजाज़त देता था वहाँ भी जनमत, जो मज़हबी धारणाओं के अधीन था, उसको जायज़ रखता था।

. ख़ुलक्' - अर्थात पत्नी का, अपनी ओर से, पति से तलाक़ लेना। (प्रकाशक)

48 परदा

आधुनिक यूरोप

अठारहवीं सदी ईस्बी में यूरोप के दार्शनिकों और लेखकों ने जब समाज के ख़िलाफ़ व्यक्ति के अधिकारों की हिमायत में आवाज़ उठाई और व्यक्ति की आज़ादी का बिगुल बजाया तो उनके सामने वही ग़लत सांस्कृतिक व्यवस्था थी जो ईसाई नैतिक व्यवस्था और जीवन-दर्शन और जागीरदारी व्यवस्था (#८0१2॥ 8५8८7) के अशुभ मेल से पैदा हुई थी और जिसने इंसानी रूह को ' अप्राकृतिक ज़ंजीरों में जकड़कर तरक्की के सारे दरवाज़े बन्द कर रबे थे। इस व्यवस्था को तोड़कर एक नई व्यवस्था बनाने के लिए जो नज़रिये आधुनिक यूगेप के निर्माताओं ने पेश किए, उनके नतीजे में फ्रांस की क्रान्ति हुई और उसके बाद पाश्चात्य संस्कृति सभ्यता की तरक़क़ी की रफ़्तार उन रास्तों पर लग गई, जिनपर बढ़ते-बढ़ते वह आज की मंज़िल पर पहुंची है।

इस नए दौर की शुरुआत में औसत-जाति को पस्ती से उठाने के लिए जो कुछ किया गया, सामाजिक ज़िंदगी में उसके अच्छे नतीजे निकले। विवाह तलाक़ के पिछले क़ानूनों क्री सख़्ती कम की गई। औरतों के आर्थिक हक़, जो बिलकुल छीन लिए गए रे बड़ी हद तक उन्हें वापस दिए गए। उन अख़लाक़ी नज़रियों को सुधाय गया जिनकी वजह से औरत को अपमानित और तिरस्कृत समझा जाता था। रहन-सहन के उन नियमों में काँट-छाँट कर दी गई जिनकी वजह से औरत सचमुच दासी बनकर रह गई थी। ऊँचे दर्जे की शिक्षा-दीक्षा के दरवाज़े मर्दों की तरह औरतों के लिए भी खोले गए। इन विविध उपायों से धीरे-धीरे औरतों की योग्यताएँ, जो रहन-सहन के ग़लत क्वानूनों और अज्ञानतापूर्ण नैतिक धारणाओं के भारी बोझों तले दबी हुई थीं, उभर आईं। उन्होंने घरों को सँवारा, रहन-सहन में सुथराई पैदा की, जनता की भलाई के बहुत-से फ़ायदेमंद काम किए, आम लोगों की सेहत की तरक्षक्नी, नई नस्लों की अच्छी तर्बियत, बीमारों की ख़िदमत और गृहस्थकला की तरक़क़ी, ये सब कुछ उस जागृति के आरंभिक फल थे जो नई सभ्यता की वजह से औरतों में पैदा हुए, लेकिन जिन नज़रियों की कोख से यह नया आन्दोलन जन्मा था उनमें शुरू ही से एक दूसरी अति (80०78) तक पहुँचने का रुझान मौजूद था उननीसर्वी सदी में इस रुझान ने बड़ी तेज़ी के साथ तरक़्क्री की और बीसबीं सदी तक

परदा 49

पहुँचते-पहुँचते पश्चिमी समाज असंतुलन के दूसरे चरम बिन्दु पर पहुँच गया।

ये नज़रिये, जिनपर आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता की बुनियाद रखी गई थी, तीन शीर्षकों के तहत आते हैं -

. औरतों और मर्दों की बराबरी,

2, औरतों की आर्थिक स्वतंत्रता (8८ण0गरांट गातल्कुशाकशाएट (९)५।०॥॥|

3. औरत-मर्द का स्वच्छंद (आज़ादाना) मेल-मिलाप।

इन तीन बुनियादों पर समाज को निर्मित करने का जो नतीजा होना चाहिए था, आख़िर वही ज़ाहिर हुआ।

. बराबरी का मतलब यह समझ लिया गया कि औरत और मर्द सिर्फ़ अख़लाक़ी मर्तबों और इंसानी हक़ों में बराबर हों, बल्कि सांस्कृतिक जीवन में औरत भी वही काम करे जो मर्द करते हैं, और अख़लाक़ी बन्धन औरत के लिए भी उसी तरह ढीले कर दिए जाएँ, जिस तरह मर्द के लिए पहले से ढीले हैं।

बराबरी की इस ग़लत अवधारणा ने औरत को उसके उन प्राकृतिक कार्मो से ग्राफ़िल और दूर कर दिया जिनके पूरा करने पर संस्कृति, बल्कि इंसानी नस्ल, ज़िंदा रहती है। आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक कार्मो ने उसके व्यक्तित्व को पूरी तरह अपने भीतर सिमो लिया। चुनाव की दौड़-धूप, दफ़्तरों और कारखानों की नौकरी, स्वतंत्र व्यवसायिक और औद्योगिक पेशों में मर्दों के साथ मुक़ाबले, खेलों और व्यायामों की दौड़-धूप, समाज के मनोरंजक कामों में भागीदारी, क्लब और स्टेज और नाच और गाने की व्यवस्ताएँ, ये और इनके अलावा और भी बहुत-सी करने और कहने की चीज़ें उसपर कुछ इस तरह छा गईं कि दाम्पत्य-जीवन की ज़िम्मेदारियाँ, बच्चों की तर्बियत, ख़ानदान की ख़िदमत, घर का प्रबन्ध, सारी चीज़ें उसके प्रोग्राम से बाहर होकर रह गईं, बल्कि ज़ेहनी तौर पर उसे इन कार्मो--अपने असली स्वाभाविक कार्मो--से नफ़रत पैदा हो गई। अब पश्चिम में ख़ानदान की व्यवस्था, जो संस्कृति की

20 पर्दा

नींव का पत्थर है, बुरी तरह बिखर रही है घर की ज़िदगी, जिसके सुकून पर इंसान की कार्य-क्षमता का विकास निर्भर है, अमली तौर पर ख़त्म हो रही है। विवाह का रिश्ता जो संस्कृति की सेवा में औरत और मर्द के सहयोग की सही शक्ल है, मकड़ी के जाले से भी ज़्यादा कमज़ोर हो गया है। नस्लों की वृद्धि को बर्थ कन्ट्रोल, गर्भपात और औलाद के क़त्ल के ज़रीए से रोका जा रहा है। नैतिक समानता की ग़लत अवधारणा ने औरतों और मर्दों के बीच अनैतिकता में बराबरी क़ायम कर दी है। वे बेहयाइयाँ जो कभी मर्दों के लिए भी शर्मनाक थीं, अब वे औरतों तक के लिए शर्मनाक नहीं रहीं

2. औरतों की आर्थिक स्वतन्त्रता ने उनको मर्द से बे-नियाज़ (बेपरवाह) कर दिया है। वह पुराना उसूल कि मर्द कमाए और औरत घर का इन्तिज़ाम करे, अब इस नए क्रायदे से बदल गया है कि.औरत और मर्द दोनों कमाएँ और घर का इन्तिज़ाम बाज़ार के सुपुर्द कर दिया जाए। इस क्रान्ति के बाद दोनों की ज़िंदगी में सिवाय एक यौन-सम्बन्ध के और कोई ताल्लुक़ ऐसा बाक़ी नहीं रहा जो उनको एक-दूसरे के साथ जुड़े रहने पर मजबूर करता हो, और ज़ाहिर है कि सिर्फ़ कामेच्छाओं को.पूरा करना कोई ऐसा काम नहीं है जिसके लिए मर्द और औरत लाज़िमी तौर पर अपने आप को एक स्थायी ताल्‍्लुक़ के बंधन में बाँधने और एक घर बनाकर संयुक्त ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर हों | जो औरत अपनी रोटी आप कमाती है, अपनी तमाम ज़रूरतों को ख़ुद पूरा करती है, अपनी ज़िंदगी में दूसरे की हिफ़ाज़त और मदद की मुहताज नहीं है, वह आख़िर सिर्फ़ अपनी काम-इच्छा की तृप्ति के लिए क्यों एक मर्द की पाबन्द हो? क्‍यों अपने

- आज स्थिति यह है कि पश्चिमी देशों में माता-पिता संतान की पारिवारिक व्यवस्था ने बिखरते-बिखरते संतान के लिए "ग्राष्टा० ऐश०॥॥१०००" का रूप लेना शुरू कर दिया है, जिसके अन्तर्गत अब शिशुओं का पालन-पोषण शिक्षा-दीक्षा या तो मात्र पिता को या मात्र माता को करनी होती है क्योंकि माता या पिता एक-दूसरे को सहज ही छोड़कर किसी और से सम्बन्ध बना लेते हैं। बुढ़ापे के लिए उनके लिए '000-ब8० प्र०7०४' बन गए हैं। यदि दोनों के दोनों संतान को छोड़कर मौज-मस्ती की कोई दूसरी राह निकाल लें तो संतान कहीं और पलती है, माता-पिता की ममता और स्नेह से बंचित रहकर। (प्रकाशक)

परदा 2]

ऊपर बहुत-सी अख़लाक़ी और क़ानूनी पाबन्दियाँ लगाए ? क्यों एक ख़ानदान की ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाए ? ख़ास तौर से जबकि अख़लाक़ी बराबरी की अवधारणा ने उसकी राह से वे तमाम रुकावर्टे भी दूर कर दी हों जो उसे आज़ादाना तरीके से वासना पूरी करने में पेश सकती थीं, तो वह अपनी ख़ाहिशों की तस्क्रीन के लिए आसान, मज़ेदार और सुन्दर रास्ता छोड़कर क्ुर्बानियों और ज़िम्मेदारियों के बोझ से लदा हुआ पुराना वक्रियानूसी (06 ए४७४०॥००) रास्ता क्यों अपनाए? गुनाह का ख़्याल मज़हब के साथ विदा हुआ। समाज का डर यूँ दूर हो गया कि समाज अब उसे बदचलन होने पर उसकी निन्दा नहीं करता, बल्कि हाथों हाथ लेता है। आख़िरी ख़तरा हरामी (अवैध) बच्चे के जन्म का था, सो उससे बचने के लिए गर्भ रोकने के साधन मौजूद हैं। इन साधनों के बावजूद गर्भ ठहर जाए तो उसे गिरा देने में भी कोई झिझक नहीं। इसमें भी कामयाबी हो तो बच्चे को ख़ामोशी के साथ क़त्ल किया जा सकता है और अगर कमबख्त मातृत्त्भाव (ममता) ने (जो बद- क्रिस्मती से अभी बिलकुल लुप्त नहीं हो सका है) बच्चे को हलाक करने से रोक भी दिया तो हरामी बच्चे की माँ बन जाने में भी कोई दोष नहीं, क्योंकि अब 'ुँवारी माँ' और 'अवैध जन्म' के हक़ में इतना प्रचार हो चुका है कि जो समाज उनको नफ़रत की निगाह से देखने की जुर्रत करेगा, उसे ख़ुद अंधविश्वासी होने का उल्टा इलज़ाम अपने सिर लेना पड़ेगा।

यह वह चीज़ है जिसने पाश्चात्य समाज की जड़ें ]हिलाकर रख दी हैं। आज हर देश में लाखों जबान औरतें अविवाहित रहना पंसन्‍्द करती हैं, जिनकी ज़िंदगियाँ आज़ादाना वासना पूरी करे में गुज़र रही हैं। उनमें से बहुत ज़्यादा वे औरतें हैं जो क्षणिक मुहब्बत की भावनाओं के ज़ोर से शादियाँ कर लेती हैं। मगर चूँकि अब वासनात्मक ताल्लुक़ के सिवा मर्द और औरत के बीच कोई ऐसा ज़रूरी ताल्लुक़ बाक़ी नहीं रहा है जो उन्हें स्थायी रूप से एक-दूसरे से जुड़े रहने पर मजबूर करता हो, इसलिए विवाह के रिश्ते में अब कोई मज़बूती और स्थिरता नहीं रही। पति और पत्नी, जो एक-दूसरे से बिलकुल बे-नियाज़ हो चुकें हैं, आपस के ताल्लुक़ात में किसी आपसी रियायत और किसी समझौते (0०णए्ाणां5०) के लिए तैयार नहीं होते। मात्र वासनात्मक प्रेम की भावनाएँ

22 परदा

बहुत जल्दी ठंडी हो जाती हैं, फिर मतभेद की एक छोटी-सी वजह, बल्कि कभी-कभी उदासीनता ही उन्हें एक-दूसरे से जुदा कर देने के लिए काफ़ी होती है। यह कारण है कि अधिकांशत: विवाहों का परिणाम तलाक़ या सम्बन्ध-विच्छेद पर होता है। गर्भनिरोध , गर्भपात, औलाद का क़त्ल, जन्म- दर में कमी और नाजायज़ बच्चों की बढ़ती हुई तादाद बड़ी हद तक इन्हीं कारणों की देन है। बदकारी, बेहयाई और यौन रोगों के फैलने में भी इस स्थिति का बड़ा दख़ल है।

3. मर्दों और औरतों के आज़ादाना मेल-मिलाप ने औरतों में हुस्न की नुमाइश, नग्नता और अश्लीलता को गैर-मामूली तरक़क्ती दे दी है। लैंगिक आकर्षण (४०८४३ ४/॥8०४०7), जो पहले ही से स्वाभाविक रूप में मर्द और औरत के बीच मौजूद है और काफ़ी ताक़तवर है, दोनों पक्षों के आज़ादाना मेल-जोल के कारण बहुत आसानी के साथ गैर-मामूली हद तक तरक्क्नी करता जाता है, फिर इस क़रिस्म की मिली-जुली सोसाइटी में कुदरती तौर पर दानों पक्षों के भीतर यह जज़्बा उभर आता है कि प्रतिपक्ष के लिए ज़्यादा से ज़्यादा आकर्षक (»४४८४४०) और मनमोहक बनें। और जबकि नैतिक दृष्टिकोणों के बदल जाने की वजह से ऐसा करना कोई दोष भी रहा हो, बल्कि एलानिया मनमोहकता की शान पैदा करने को अच्छा और पसनन्‍्दीदा समझा जाने लगा हो, तो हुस्न सौन्दर्य की नुमाइश धीरे-धीरे तमाम हदों को तोड़ती चली जाती है, यहाँ तक कि नग्नता की आख़िरी हद को पहुँचकर ही दम लेती है। यही स्थिति इस वक़्त पाश्चात्य सभ्यता में पैदा हो गई है। विपरीत लिंग के लिए चुम्बक बनने की ख़ाहिश औरत में इतनी बढ़ गई है और इतनी बढ़ती चली जा रही है कि भड़कीले पहनावों, पॉवडरों, सुर्खियों और बनाव-सिंगार के नित नए सामानों से उसकी तृप्ति नहीं होती। बेचारी तंग आकर अपने कपड़ों से बाहर निकली पड़ती है, यहाँ तक कि कभी-कभी तार तक लगा नहीं रहने देती। इधर मर्दों की ओर से हर वक़्त कुछ और, कुछ और' का तक़ाज़ा है, क्योंकि भावनाओं में जो आग लगी हुई है वह हुस्न के बार-बार बे-परदा होने पर बुझती नहीं, बल्कि और ज़्यादा भड़कती है और ज़्यादा बे-परदा होने की माँग 'करती है। इन बेचारों की प्यास भी बढ़ते-बढ़ते तौंस बन गई है, जैसे किसी को

परदा 2

लू लग गई हो और पानी का हर घूँट प्यास को बुझाने के बजाय और भड़का देता हो। हद से बढ़ी हुई वासना की प्यास से बेचैन होकर बेचारे हर वक़्त हर मुमकिन तरीक़े से उसकी तस्कीन का सामान जुटाते रहते हैं। ये नंगी तस्वीरें, ये गंदे लिट्रेचर, ये इश्क़ मुहब्बत की कहानियाँ, ये नंगे और जुड़वाँ नाच, ये कामोत्तेजना से भरी हुई फ़िल्में, (और ब्लू फ़िल्में) आख़िर क्या हैं? सब इसी आग को बुझाने--बल्कि असल में भड़काने--के सामान हैं, जो इस ग़लत सामाजिकता ने हर सीने में लगा रखी है और अपनी इस कमज़ोरी को छिपाने के 'लिए इसका नाम उन्होंने रखा है 'आर्ट' (कला)

यह घुन बड़ी तेज़ी के साथ पश्चिमी क़ौमों की ज़िंदगी की ताक़त को खां रहा है। यह घुन लगने के बाद आज तक कोई क़ौम नहीं बची | यह उन तमाम ज़ेहनी और जिस्मानी ताक़तों को खा जाता है जो क्रुदरत ने इंसान को ज़िंदगी और तरक़क़ी के लिए दे रखी हैं। ज़ाहिर है कि जो लोग हर ओर से वासना पर उभारनेवाली चीज़ों से घिरे हों, जिनकी भावनाओं को हर समय एक नए आन्दोलन और एक नई उत्तेजना से वास्ता पड़े, जिनपर एक बड़ा सनसनी भरा माहौल पूरी तरह छा गया हो, जिनके ख़ून को नग्न तस्वीरें, अश्लील लिट्रेचर, उत्तेजक गाने, भड़कानेवाले नाच, इश्क़ मुहब्बत की फ़िल्में, दिल छीननेवाले ज़िदा दृश्य और विपरीत लिंग से हर वक़्त की मुठभेड़ के मौक़े बराबर एक जोश - की हालत में रखते हों, वे कहाँ से वह अम्न, वह सुकून और वह इत्मीनान ला सकते हैं जो रचनात्मक और सृजनात्मक कामों के लिए ज़रूरी है। यही नहीं, बल्कि ऐसी उत्तेजनाओं के बीच उनको, और ख़ास तौर से उनकी जवान नस्‍्लों को, वह ठंडा और सुकून भरा माहौल कहाँ से मिल सकता है जो उनकी ज़ेहनी और अख़लाक़ी ताक़तों के विकास के लिए ज़रूरी है। होश सँभालते ही तो हैवानी ख़ाहिशों का दैत्य उनको दबोच लेता है। उसके चँँगुल में फँसकर वे पनप कैसे सकते हैं?

मानवीय चिन्तन की दर्दनाक नाकामी

तीन हज़ार साल के ऐतिहासिक उतार-चढ़ाव की यह लम्बी दास्तान एक बड़े भू-भाग से ताल्लुक़ रखती है जो पहले भी दो महान संस्क्ृतियों का गहवारा

24 परदा

रह चुका है, और अब फिर जिसकी संस्कृति का डंका दुनिया में बज रहा है। ऐसी ही दास्तान मिस्र, बाबिल, ईरान और दूसरे देशों की भी है और ख़ुद हमारा देश भारत भी सदियों से दो इन्तिहाओं (अतियों) में फँसा हुआ है। एक ओर औरत दासी बनाई जाती है, मर्द उसका स्वामी और पतिदेव यानी मालिक और माबूद (पूज्य) बनता है। उसको बचपन में बाप की, जवानी में शौहर की और विधवा होने पर औलाद की दासी बनकर रहना पड़ता है। उसे शौहर की चिता पर भेंट चढ़ाया जाता है। उसको मिल्कियत और विरासत के अधिकारों से वंचित रखा जाता है। उसपर विवाह के बड़े कड़े क़ानून लाद दिए जाते हैं जिनके मुताबिक़् वह अपनी मर्ज़ी और पसन्द के बिना एक मर्द के हवाले की जाती है और फिर ज़िंदगी की आख़िरी साँस तक उसकी दासता से किसी हाल में नहीं निकल सकती | उसको यहूदियों और यूनानियों की तरह गुनाह और अख़लाक़ और रूह की पस्ती की प्रतिमा समझा जाता है और उसके स्थायी व्यक्तित्व को मानने से इंकार कर दिया जाता है। दूसरी ओर जब उसपर कृपा-दृष्टि होती है तो उसे हैवानी ख़ाहिशों का खिलौना बना लिया जाता है। वह मर्द के दिल दिमाग़ पर सवार हो जाती है, और ऐसी सवार होती है कि ख़ुद भी डूबती है और अपने साथ सारी क़ौम को भी ले डूबती है। यह लिग और योनि की पूजा, यह उपासनाग्रहों व्‌ गुफाओं में नंगी और युगल मूर्तियाँ, ये देवदासियाँ (रथशाशिंणपड ?7057065), ये होली के खेल, ये नदियों के अर्द्धनगल स्नान

* आख़िर किस चीज़ की यादगारें हैं? उस्त वाममार्गी आन्दोलन की बची-खुची ख़राबियाँ ही तो हैं जो ईरान, बाबिल, यूनान और रोम की तरह भारत में भी संस्कृति सभ्यता की अत्योननति के बाद छूत की बीमारी की तरह फैली और हिन्दू क्रौम को सदियों के लिए गिरावट और पस्ती के गढ़े में फेंक गई।

इस दास्तान को गहरी नज़र से देखिए तो मालूम होगा कि औरत के मामले में संतुलन-बिन्दु को पाना और उसे समझना और उसपर क़ायम होना इंसान के लिए कितना कठिन साबित हुआ है। संतुलन-बिन्दु यही हो सकता है कि एक ओर औरत को अपने व्यक्तित्व और अपनी योग्यताओं की तरक़क्ती का पूरा मौक़ा मिले और उसे इस क़ाबिल बनाया जाए कि वह ज़्यादा से ज़्यादा उन्नत योग्यताओं के साथ इंसानी संस्कृति सभ्यता की तरक़क़ी में अपना हिस्सा

परदा डे 25

अदा कर सके। मगर दूसरी ओर उसको अख़लाक़ी गिरावट और पस्ती का ज़रीआ और इंसानी तबाही का हथियार बनने दिया जाए, बल्कि मर्द के साथ उसके सहयोग का -ऐसा रास्ता-निकाल दिया जाए कि दोनों को मिलकर काम करना हर हैसियत से संस्कृति के लिए स्वास्थ्यप्रद हो। इस संतुलन-बिन्दु को दुनिया सदियों से खोजती रही है, मगर आज तक नहीं पा सकी। कभी एक इंतिहा की ओर जाती है और इंसानियत के पूरे आधे हिस्से को बेकार बनाकर रख देती है, कभी दूसरी इंतिहा की ओर जाती है और इंसानियत के दोनों हिस्सों को मिलाकर अपंग बनाकर रख देती है।

संतुलन-बिन्दु बिलुप्त नहीं, मौजूद है, मगर हज़ारों साल तक दोनों इंतिहाओं के बीच भटकते रहने की वजह से लोगों का सर कुछ इतना चकरा गया है कि वह संतुलन-बिन्दु सामने आता है और ये पहचान नहीं सकते कि यही तो वह बांछित वस्तु है जिसे हमारी प्रकृति ढूँढ रही थी। इस वास्तविक वांछित वस्तु को देखकर वे नाक-भौं चढ़ाते हैं, उस पर फबतियाँ कसते हैं और जिसके पास यह नज़र आता है, उलटा उसी को शर्मिन्दा करने की कोशिश करते हैं। उनकी मिसाल उस बच्चे की-सी है जो एक कोयले की खान में पैदा . हुआ हो और वहीं जवानी की उम्र तक पहुँचे। ज़ाहिर है कि उसे वही कोयले की मारी हुई जलवायु और वही काल-काली- फ़िज़ा ही ठीक फ़ितरी चीज़ मालूम होगी, और जब बह उस खान से निकालकर बाहर लाया जाएगा तो प्रकृति की पवित्र फ़िज़ा में हर चीज़ को देखकर पहले-पहल वह ज़रूर घबराएगा। मगर इंसान आख़िर इंसान है। उसकी आँखें कोयले की छत और तारों भरे आसमान का फ़र्क़ महसूस करने से कब तक इंकार कर सकती हैं ? उसके फेफड़े गन्दी हवा और साफ़ हवा में आख़िर कब तक फ़र्क महसूस करेंगे?

26 >. परदा

अध्याय-2 आधुनिक युग का मुसलमान

दो इंतिहाओं (अतियों) की भूल-भुलैयों में भटकनेवाली दुनिया को अगर संतुलन का रास्ता दिखानेवाला कोई हो सकता था तो वह सिर्फ़ मुसलमान था, जिसके पास सामाजिक ज़िंदगी की सारी गुत्थियों के सही हल मौजूद हैं। मगर दुनिया की बदनसीबी का यह भी एक अजीब दर्दनाक पहलू है कि इस अंधेरे में जिसके पास चिराग़ था, वही कमबख़्त रतौंध के रोग का शिकार हो गया और दूसरों को रास्ता दिखाना तो दूर की बात, ख़ुद अंधों की तरह भटक रहा है और एक-एक भटकमेवाले के पीछे दौड़ता फिरता है।

“परदा” शब्द जिस विधान-समूह के लिए शीर्षक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, वह असल में अपने अन्दर रहन-सहन सम्बन्धी इस्लामी सामाजिक क्रानूनों के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अवयबों (अंशों) पर आधारित है। इस पूरे वैधानिक ढाँचे में इन हुक्‍्मों को इनकी सही जगह पर रखकर देखा जाए तो कोई ऐसा व्यक्ति, जिसमें थोड़ी-सी भी फ़ितरी सूझ-बूझ बाक़ी हो, यह माने बिना रहेगा कि सामाजिकता में उसके सिवा संतुलित और न्याय-संगत प्रणाली और कोई हो ही नहीं सकती, और अगर इस क़ानून को उसकी असली रूह के साथ अमली ज़िंदगी में बरत कर दिखा दिया जाए तो उसपर एतिराज़ करना तो दूर की बात, मुसीबतों की मारी हुई दुनिया सलामती के इस म्रोत की ओर ख़ुद दौड़ती चली आएगी और इससे अपने सामाजिक रोगों की दवा हासिल करेगी। मगर यह काम कौन करे? जो इसे कर सकता था, वह ख़ुद एक मुद्दत से बीमार पड़ा है आइए, आगे बढ़ने से पहले तनिक एक नज़र डालकर उसके इस रोग का भी जायज़ा ले लें।

ऐतिहासिक पृष्टभूमि अठारहवीं सदी का अंतिम और उन्‍नीसववीं सदी का आरंभिक ज़माना था

जब पश्चिमी क्रौमों की साम्राज्यवाद की बाढ़ एक तूफ़ान की तरह इस्लामी देशों पर उमड़ आई और मुसलमान अभी कुछ सोई और कुछ जागि हुई हालत ही में

पर्दा 27

थे कि देखते-देखते यह तूफ़ान पूरब से लेकर पश्चिम तक पूरी इस्लामी दुनिया पर छा गया | उन्‍नीसवीं सदी के अन्तिम उत्तरार्द्ध (निस्फ़ आख़िर) तक पहुँचते- पहुँचते अधिकतर मुसलमान क्रौमें (देश) यूरोप की गुलाम हो चुकी थीं और जो गुलाम हुई थीं वे भी पश्चिमी साम्राज्य के रौब से ग्रस्त प्रभावित ज़रूर हो गई थीं। जब यह इनक्रिलाब पूरा हो गया तो मुसलमानों की आँखें खुलनी शुरू हुईं। वह जातीय गौरव जो सदियों तक सत्ता शासन के क्षेत्रों में ऊँचे पद पर रहने की वजह से पैदा हो गया था, यकायक मिट्टी में मिल गया और उस शराबी की तरह जिसका नशा किसी ताक़तवर दुश्मन की लगातार चोटों ने उतार दिया हो, उन्होंने अपनी हार और अंग्रेज़ों की जीत के कारणों पर विचार करना शुरू किया लेकिन अभी दिमाग़ ठीक नहीं हुआ था, हाँ, नशा उतर गया था मगर सन्तुलन अभी तक बिगड़ा हुआ था। एक ओर अपमानित होने का ज़बरदस्त एहसास था जो इस हालत को बदल देने की माँग कर रहा था, दूसरी ओर सदियों की आराम-तलबी और सहूलत-पसन्दी थी जो हालात की तब्दीली का सबसे आसान और सबसे ज़्यादा क़रीब का रास्ता ढूँढना चाहती थी। तीसरी ओर समझ-बूझ और सोच-विचार की ज़ंग खाई हुई ताक़तें थीं, जिनसे काम लेने की आदत वर्षों से छूटी हुई थी। इन सबके साथ ही दुश्मनों का रोब दबदबा तथा भय और आतंक छाया हुआ था, जो हर हारी हुई गुलाम क़ौम में स्वाभाविक रूप से पैदा हो जाता है। इन विभिन्‍न कारणों ने मिल-जुलकर सुधारवादी मुसलमानों को बहुत-सी अक़ली और अमली गुमराहियों में लिप्त कर दिया। इनमें से ज़्यादातर तो अपनी पस्ती और यूरोप की तरक़्क़ी के वास्तविक कारणों को समझ ही सके।' और जिन्होंने इनको समझा, उनमें भी इतनी हिम्मत, संघर्षकारी और मुजाहिदाना स्प्रिट थी कि तस्ब्क़ी के कठिन रास्तों 'को अपनाते। उनपर दुश्मन का छाया हुआ रौब अलग था जिसमें उपरोक्त दोनों गरोह बराबर के शरीक थे। इस बिगड़ी हुई ज़ेहनियत के साथ तरक्नक्नी का सबसे

. आसान रास्ता जो उनको नज़र आया, वह यह था कि पश्चिमी संस्कृति और सभ्यता की प्रतिछया अपनी ज़िंदगी में उतार लें और उस आईने की तरह बन जाएँ जिसके भीतर बाग़ बहार के दृश्य तो सब के सब मौजूद हों, मगर हक़ीक़त में बाग़ हो, बहार।

28 परदा

मानसिक दासता

यही संकट का वह समय था जिसमें पश्चिमी पहनावा, पश्चिमी रहन- सहन, पश्चिमी तौर-तरीक़े, ग्रहाँ तक कि चाल-ढाल और बोल-चाल तक में पश्चिमी तरीक़ों की नक़्ल उतारी गई। मुस्लिम समाज को पश्चिमी साँचों में ढालने की कोशिशें की गईं। नास्तिकता, धर्मविमुखता और भौतिकवाद को फ़ैशन के तौर पर बिना समझे-बूझे स्वीकार कर लिया गया। हर उस कच्चे- पक्के विचार पर, जो पश्चिम से आया, आँखें बन्द करके ईमान ले आना और अपनी मजलिसों में उसको वार्ता का विषय बनाना रौशनख़्याली के लिए ज़रूरी समझा गया। शराब, जुआ, लाटरी, रेस, थिएटर, नाच-गाने और पश्चिमी सभ्यता की अन्य बुराइयों को हा्थो-हाथ लिया गया। शिष्टता, अख़्लाक़, रहन-सहन, खान-पान, राजनीति, क़ानून, यहाँ तक कि मज़हबी अक़ीदों और इबादतों के मुताल्लिक़ भी जितने पश्चिमी नज़रिये या अमल थे, उनको बिना किसी आलोचना और बिना किसी गौर फ़िक्र के इस तरह मान लिया गया कि जैसे वे आसमान से उतरी हुई वह्य (प्रकाशना) हैं, जिनको मानना और जिनका पालन करना अनिवार्य है।

इस्लामी इतिहास की घटनाएँ, इस्लामी शरीभ्रत के हुक्म और कुरआन हदीस के बयानों में जिस-जिस चीज़ को इस्लाम के पुराने दुश्मनों ने नफ़र्त या एतिजराज़ की निगाह से देखा उसपर मुसलमानों को भी शर्म आने लगी और उन्होंने कोशिश की कि इस दाग़ को किसी तरह धो डालें। उन्होंने जिहाद पर एतिराज़ किया। मुसलमानों ने कहा कि हुज़ूर!ं भला हम कहाँ और जिहाद कहाँ? उन्होंने ग़ुलामी पर एतिराज़ किया। मुसलमानों ने कहा कि गुलामी तो हमारे यहाँ बिल्कुल ही नाजायज़ है। उन्होंने बहुपत्नित्व पर एतिराज़ किया तो मुसलमानों ने तुस्नत क़्ुरआन की उस आयत को निरस्त कर दिया जिसमें बहुपत्नित्व की अनुमति दी गई है। उन्होंने कहा कि औरत और मर्द में पूरी बराबरी होनी चाहिए तो मुसलमानों ने कहा कि यही हमारा मज़हब भी है। उन्होंने शादी तलाक़ के क़ानूनों पर एतिराज़ किए तो मुसलमान उन सब में काँट-छाँट करने पर तुल गए उन्होंने कहा कि इस्लाम कला का दुश्मन है तो मुसलमानों ने कहा कि इस्लाम तो हमेशा से नाच-गाने, तस्वीर बनाने और बुत तराशने की सरपरस्ती करता रहा है।

प्रदा 29

परदे के सम्बन्ध में बहस की शुरुआत

मुसलमानों के इतिहास कां यह दौर, जिसका ऊपर उल्लेख हुआ है, सब से ज़्यादा शर्मनाक है। यही दौर है जिसमें परदे के सवाल पर बहस छिड़ी। अगर सवाल सिर्फ़ इतना होता कि इस्लाम में औरत के लिए आज़ादी की क्‍या हद तय की गई है तो जवाब कुछ भी मुश्किल होता। ज़्यादा से ज़्यादा जो मतभेद इस सिलसिले में पाया जाता है, वह सिर्फ़ इस हद तक है कि चेहरे और हाथों को खोलना जायज़ है या नहीं। और यह कोई बहुत अहम मतभेद नहीं है। लेकिन असल में यहाँ मामला कुछ और है।

मुसलमानों में यह मसला इसलिए पैदा हुआ कि यूरोप ने 'हरमा ज़नानख़ाना और परदा नक़ाब को बड़ी नफ़रत की निगाह से देखा) अपने लिट्रेचर में उसकी बड़ी घिनौनी और हास्यास्पद तस्वीरें खींचीं! इस्लाम के ऐबों और ख़राबियों की लिस्ट में औरतों की क़रैद' को ख़ास जगह दी। अब कैसे मुमकिन था कि मुसलमानों को इस चीज़ पर भी शर्म आने लगती। उन्होंने जो कुछ जिहाद, गुलामी और बहुपत्नीत्व और ऐसे ही दूसरे मसलों में किया था, वही इस मसले में भी किया। कुरआन, हदीस और धार्मिक विद्वानों के मत और निष्कर्षों के पृष्ठ इस मक़सद से उलटे गए कि वहाँ इस बदनुमा दाग़” को धोने के लिए कुछ सामान मिलता है या नहीं। मालूम हुआ कि कुछ धर्मशास्त्रियों (फ़िक़ही इमामों) ने हाथ और मुँह खोलने की इजाज़त दी है। यह भी पता चला कि औरत अपनी ज़रूरत के लिए घर से बाहर भी निकल सकती है। यह भी मालूम हुआ कि औरत लड़ाई के मैदान में सिपाहियों को पानी पिलाने और घायलों की मरहम-पट्टी करने के लिए भी जा सकती है। मस्जिदों में नमाज़ के लिए जाने और इल्म (ज्ञान) सीखने और शिक्षा देने की भी गुंजाइश पाई गई बस इतनी चीज़ें काफ़ी थीं। दावा कर दिया गया कि इस्लाम ने औरत को पूरी आज़ादी दे रखी है। परदा सिर्फ़ एक अज्ञानतापूर्ण रस्म है। जिसको तंगनज़र और अंधविश्वासी मुसलमानों ने शुरू के दौर के बहुत बाद अपनाया है। क्ुरआन और हदीस परदे के हुक्मों से ख़ाली हैं। उनमें तो सिर्फ़ शर्म हया की अख़लाक़ी तालीम दी गई है। कोई ऐसा नियम नहीं बनाया गया जो औरत की गतिविधियों पर कोई पाबन्दी लगाता हो।

30 पर्दा

मूल प्रेरक

इंसान की यह स्वाभाविक कमज़ोरी है कि अपनी ज़िंदगी के मामलों में जब वह कोई रास्ता अपनाता है तो आम तौर से उसके चुनाव की शुरुआत एक जज़्बाती, ग़ैर-अक़्ली रुझान से होती है और उसके बाद वह अपने इस रुझान को सही साबित करने के लिए अक़्ल दलील से मदद लेता है। परदे (हिजाब) की बहस में भी ऐसी ही शक्ल पेश आई। इसकी शुरुआत किसी अक्ली या शरई ज़रूरत के एहसास से नहीं हुई, बल्कि असल में उस रुझान से हुई है जो एक ग़ालिब-क्रौम (विजेताजाति) की आकर्षक संस्कृति से प्रभावित होने और इस्लामी संस्कृति के ख़िलाफ़ उस क़ौम के ग़लत प्रचार से भयभीत हो जाने का नतीजा है।

हमारे (तथाकथित) सुधारकों ने जब भय से फटी हुई आँखों के साथ फ़िरंगी औरतों की साज-सज्जा, बनाव श्रृंगार, उनकी आज़ादी के साथ चलत- फिरत और फ़िरंगी समाज में उनकी गतिविधियों को देखा तो बेचैनी के तौर पर उनके दिलों में यह तमन्ना पैदा हुई कि काश! हमारी औरतें भी इसी रविश पर चलें, ताकि हमारी संस्कृति भी पश्चिमी संस्कृति के समकक्ष हो जाए। फिर वे औरतों की आज़ादी, औरतों की शिक्षा और औरत-मर्द की बराबरी के उन नए नज़रियों से भी प्रभावित हुए जो तर्कपूर्ण सशक्त भाषा में और शानदार छपाई के साथ वर्षा की तरह लगातार उनपर बरस रहे थे। इस लिट्रेचर की ज़बरदस्त ताक़त ने उनकी जाँचने-परखने की ताक़त को ख़त्म कर दिया और उनकी चेतना में यह बात उतर गई कि इन नज़रियों पर आँखें मूँदकर ईमान लाना और लेखन भाषण में उनकी वकालत करना और (जुरअत साहस के साथ) अमली ज़िंदगी में भी उनको लागू कर देना हर उस आदमी के लिए ज़रूरी है जो अपने को “आधुनिक और उदारबादी' कहलाना पसंद करता हो और “दक्कियानूसी' (रुढ़िवादिता) के घिनौने इलज़ाम से बचना चाहता हो। नक़ाब के साथ सादा वस्त्रों में छिपी हुई औरतों पर जब “चलते-फिरते ख़ेमे' और 'कफ़न पहने हुए जनाज़े' की फबतियाँ कसी जाती थीं तो ये बेचारे शर्म के मारे ज़मीन में गड़-गड़ जाते थे। आख़िर कहाँ तक सहन करते ? मजबूर होकर या उनके जादू में आकर बहरहाल इस शर्म के धब्बे को धोने पर तैयार हो ही गए।

परदा 37

उन्‍नीसवी सदी के आख़िरी ज़माने में नारी-स्वतंत्रता का जो आन्दोलन मुसलमानों में चला, उसके असली प्रेरक यही भावनाएँ और यही रुझान थे। कुछ लोग बिना समझे-बूझे इन भावनाओं के शिकार हो गए थे, और उनको ख़ुद भी मालूम था कि वास्तव में क्या चीज़ है जो उन्हें इस आन्दोलन की ओर ले जा रही है। ये लोग अपने आपको धोखे में डाले हुए थे। कुछ को अपनी उन भावनाओं का अच्छी तरह एहसास था, ममर उन्हें अपनी असली भावनाओं को ज़ाहिर करते शर्म आती थी। ये ख़ुद तो धोखे में थे, लेकिन इन्होंने दुनिया को धोखे में डालने की कोशिश की। बहरहाल दोनों गिरोहों ने काम एक ही किया और वह यह था कि अपने आन्दोलन के असल प्रेरकों को 'छिपाकर उसको एक भावनात्मक आन्दोलन के बजाए एक बौद्धिक आन्दोलन बनाने की कोशिश की। औरतों की सेहत, उनकी बौद्धिक व्यावहारिक उन्नति, उनके स्वाभाविक और पैदाइशी अधिकार, उनकी आर्थिक दृढ़ता, मर्दों के ज़ालिमाना चंगुल से उनकी रिहाई और क़ौम का आधा हिस्सा होने की हैसियत से उनकी तरक़क़ी पर पूरी सभ्यता की तरक़क्नी की निर्भरता और ऐसे ही दूसरे हीले-बहाने, जो सीधे तौर पर यूरोप से हासिल किए गए थे, इस आन्दोलन के समर्थन में पेश किए गए, ताकि आम मुसलमान धोखे में पड़ जाएँ और उनपर यह हक़ीक़त खुल सके कि इस आन्दोलन का असूल मक़सद मुसलमान औरत को उस रविश पर चलाना है जिसपर यूरोप की औरत चल रही है और सामाजिक व्यवस्था में उन तरीक़ों की पैरवी करना है जो इस वक़्त फ़िरंगी क्रौमों में प्रचलित हैं।

सबसे बड़ा धोखा

लेकिन सबसे ज़्यादा सख़्त और घिनौना धोखा जो इस सिलसिले में दिया गया है वह यह है कि कुरआन हदीस से दलीलें लाकर इस आन्दोलन को इस्लाम के अनुकूल साबित करने की कोशिश की गई है, हालांकि इस्लाम और पश्चिमी सभ्यता के मक़सदों और समाज-निर्माण के उसूलों में ज़मीन आसमान की दूरी है। इस्लाम का मक़सद, जैसाकि हम आगे चलकर बताएँगे, इंसान की काम-शक्ति (5७०॥ .श?2५) को अख़लाक़ी डिसिपलिन (नैतिक अनुशासन) में लाकर इस तरह नियंत्रित करना है कि वह व्यावहारिक भटकाव

32 पर्दा

और कामोत्तेजना में बर्बाद होने के बजाए एक अच्छी और स्वच्छ संस्कृति की रचना में लगे। इसके विपरीत पश्चिमी संस्कृति का मक़सद यह है कि ज़िंदगी के मामलों और ज़िम्मेदारियों में औरत और मर्द को बराबर का शरीक करके भौतिक उन्नति की रफ़्तार तेज़ कर दी जाए और उसके साथ काम-भावनाओं को ऐसी कलाओं और कार्मों में इस्तेमाल किया जाए जो जीवन-संघर्ष की कड़वाहटों को हर्ष और आनन्द में बदल दें। मक़सदों के इस फ़र्क़ का ज़रूरी तक़ाज़ा यह है कि रहन-सहन और सामाजिक व्यवस्था के गठन के तौर-तरीक्ों में भी इस्लाम और प्रश्चिमी संस्कृति के बीच बुनियादी मतभेद है। इस्लाम अपने मकसद के लिहाज़ से रहन-सहन और समाज की ऐसी व्यवस्था बनाता है... जिसमें औरत और मर्द के कार्य-क्षेत्र बड़ी हद तक अलग. कर दिए गए हैं। मर्द और औरत के आज़ादाना मेल-मिलाप को रोका गया है और उन तमाम कारणों *- की जड़ काट दी गई है जो इस व्यवस्था और अनुशासन में बिखराव पैदा करते हैं। इसके मुक़ाबले में पश्चिमी संस्कृति के सामने जो मक़सद है, उसका फ़ितरी तक़ाज़ा यह है कि मर्दों और औरतों, दोनों को ज़िंदगी के एक ही मैदान में खींच लाया जाए और उनके बीच से वे तमाम परदे उठा दिए जाएँ जो उनके स्वतंत्र मेलजोल और मामला करे में रुकावट बनें और उनको एक-दूसरे के हुस्न और लैंगिक विशेषताओं से आनन्दित होने के व्यापक मौक़े जुटा दिए जाएँ।

अब हर अक़्लमंद इंसान यहं अन्दाज़ा कर सकता है कि जो लोग एक ओर पश्चिमी संस्कृति पर चलना चाहते हैं और दूसरी ओर इस्लामी सामाजिक - व्यवस्था और रहन-सहन के नियमों को भी अपने लिए अनिवार्य मानते हैं, वे ख़ुद कितने बड़े धोखे में पड़े हुए हैं या दूसरों को धोखे में डाल रहे हैं। इस्लामी सामाजिक व्यवस्था में तो औरतों के लिए आज़ादी की आख़िरी हद यह है कि ज़रूरत के मुताबिक़ हाथ और मुँह खोले और अपनी जाइज़ ज़रूरतों के लिए घर से बाहर निकले, मगर ये लोग आखिरी हद को अपने सफ़र का आरंभिक बिन्दु समझते हैं। जहाँ पहुँचकर इस्लाम रुक जाता है वहाँ से ये चलना शुरू 'करते हैं और यहाँ तक बढ़ जाते हैं कि हया और शर्म ताक़ पर रख दी जाती है। हाथ और मुँह ही नहीं, बल्कि ख़ूबसूरत माँग निकले हुए सिर, कंधों तक खुली हुई बाहें और अर्द्धनग्न सीने भी निगाहों के सामने पेश कर दिए जाते हैं, और

प्रदा 33

जिस्म के बाक़ी हिस्सों के सौन्दर्य को भी ऐसे बारीक और चुस्त कपड़ों में लपेटा जाता है कि हर वह चीज़ उनमें से नज़र सके जो मर्दों की काम-वासना की प्यास को बुझा सकती हो। फिर इन वस्त्रों और श्रृंगारों के साथ महरमों' के सामने नहीं, बल्कि दोस्तों की महफ़िलों में बीवियों, बहनों और बेटियों को लाया जाता है और उनको परायों के साथ हँसमे-बोलने और खेलने में वह आज़ादी बुशी जाती है जो मुसलमान औरत अपने सगे भाई के साथ भी नहीं बरत सकती। घर से निकलने की जो इजाज़त सिर्फ़ ज़रूरत पड़ने पर और अच्छी तरह शरीर को ढककर हयादारी की शर्त के साथ दी गई थी, उसको आकर्षक साड़ियों और अधखुले ब्लाउज़ों और बेबाक निगाहों के साथ सड़कों पर फिरने, पार्कों में टहलने, होटलों के चक्कर लगाने और सिनेमाघरों की सैर करने में इस्तेमाल किया जाता है। औरतों को ख़ानादारी के अलावा दूसरे मामलों में हिस्सा लेने की जो सीमित और सशर्त आज़ादी इस्लाम में दी गई थी, उसको दलील प्रमाण बनाया जाता है, ताकि मुसलमान औरतें भी अंग्रेज औरतों की तरह घर की ज़िंदगी और उसकी ज़िम्मेदारियों को तलाक़ देकर राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों में मारी-मारी फिरें और प्रत्येक कार्यक्षेत्र में मर्दों के साथ दौड़-धूप करें। है

भारत में तो भामला यहीं तक है। मिस्र, तुर्की और ईरान में सियासी आज़ादी रखनेवाले ज़ेहनी गुलाम इससे भी दस क़दम आगे निकल गए हैं) वहाँ “मुसलमान” औरतें ठीक वही वस्त्र पहनने लगी हैं जो यूरोपीय औरतें पहनती हैं, ताकि असूल और नक़ल में कोई फ़र्क़र ही रहे। और इससे भी बढ़कर कमाल यह है कि तुर्की औरतों के फ़ोयो अधिकतर इस हालत में देखे गए हैं कि नहाने * का कपड़ा पहनकर समुद्र के किनारे नहा रही हैं -- वही वस्त्र, जिसमें तीन ज्ौथाई जिस्म नंगा रहता है और एक चौथाई हिस्सा इस तरह ढका होता है कि जिस्म के सारे उतार-चढ़ाव कपड़े की सतह पर उभर आते हैं।

. 'महरमों' से तात्पर्य है ऐसे व्यक्ति, जिनके साममे स्त्री के बे-परदा आने को इस्लाम ने मना नहीं किंया-है इस्लामी शरीअत में ये वे निकट-सम्बन्धी हैं जिनके साथ स्त्री का निकाह (विवाह) नहीं हो सकता, जैसे-बाप, बेटा, भाई, भांजा, भतीजा, चाचा,

- मामा, ख़ालू (मौसा), नाना, दादा इत्यावि।

ड्व फ्र्दा

क्या कुरआन और किसी हदीस से इस शर्मनाक जीवन-शैली के लिए भी जायज़ होने का कोई पहलू निकाला जा सकता है? जब तुमको उस राह पर जाना है तो साफ़ एलान करके जाओ कि हम इस्लाम से और उसके क़ानून से बग़ावत करना चाहते हैं। यह कैसी ज़लील मुनाफ़िक्रत (नीचतापूर्ण कपटाचार) और बद-दियानती है कि जिस सामाजिक व्यवस्था और जीवन-शैली के नियम, उद्देश्यों और व्यावहारिक अंगों में से एक-एक चीज़ को क्ुरआन हराम कहता है उसे एलानिया अपनाते हो, मगर इस रास्ते पर पहला क़दम कुरआन ही का नाम लेकर रखते हो, ताकि दुनिया इस धोखे में रहे कि बाक़ी क़दम भी क्रुरआन ही के मुताबिक होंगे।

हमारा मक़सद

यह नये दौर के 'मुसलमान' का हाल है। अब हमारे सामने बहस के दो पहलू हैं, और इस किताब में इन्हीं दोनों पहलूओं को ध्यान में रखा जाएगा।

एक यह कि हमको तमाम इंसानों के सामने, चाहे वे मुसलमान हों या गैर- मुस्लिम, इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था और रहन-सहन के वरीक़ों की व्याख्या करनी है और यह बताना है कि इस व्यवस्था में परदे के आदेश किस लिए दिए गए हैं।

दूसरे यह कि हमें नये दौर के इन 'मुसलमानों' के सामने कुरआन हदीस के हुक्म और पश्चिमी संस्कृति, सभ्यता और सामाजिकता के सिद्धान्तों और परिणामों दोनों को एक-दूसरे के आमने-सामने रख देने हैं, ताकि यह दोरंगी चाल, जो उन्होंने अपना रखी है, ख़त्म हो और वे शरीफ़ इंसानों की तरह दो स्थितियों में से कोई एक स्थिति अपना लें या तो इस्लामी हुक्‍्मों की पैरवी करें अगर मुसलमान रहना चाहते हैं या इस्लाम से ताल्लुक़ तोड़ लें अगरं उन शर्मनाक नतीजों को क़बूल करने के लिए तैयार हैं जिनकी ओर पश्चिमी सामाजिक व्यवस्था आख़िर्कार उनको ले जानेवाली है।

परदा 35

अध्याय-.9 विचारधाराएँ

परदे का विरोध जिन कारणों से किया जाता है वे सिर्फ़ नकारात्मक (९८६५/४९०) ही नहीं हैं, बल्कि असल में एक सकारात्मक बुनियाद पर क़ायम हैं। इनकी बुनियाद सिर्फ़ यही नहीं है कि लोग औरतों के घर में रहने और नक़ाब के साथ बाहर निकलने को बेजा क़ैद समझते हैं और बस उसे मिटा देना चाहते हैं। असल मामला यह है कि उनकी नज़रों के सामने औरत के लिए ज़िंदगी का एक दूसरा नक़शा है। मर्द और औरत के ताल्लुक़ात के बारे में वे. _ अपनी एक स्थायी सोच रखते हैं। वे चाहते हैं कि औरतें यह करें, बल्कि कुछ और करें और परदे पर उनका एतिराज़ इस वजह से है कि औरत अपने इस तरह घर बैठे रहने और छिपे रहने के साथ तो ज़िंदगी कां वह नक़शा जमा सकती है, वह 'कुछ और' कर सकती है।

अब हमें यह देखना चाहिए कि वह 'कुछ और' क्या है, उसकी तह में कौन-से दृष्टिकोण और कौन-से सिद्धान्त हैं; बह अपने आप में कहाँ-तक ठीक और सही है और अमली तौर पर उसके क्या नतीजे निकले है। यह ज़ाहिर है - कि अगर इनके दृष्टिकोणों और सिद्धान्तों को ज्यों का त्यों मान लिया जाए तब तो परदा और वह सामाजिक व्यवस्था जिसका अंग यह परदा है, वाक़ई सरासर ग़लत क़रार पाएगी। मगर हम बिना किसी आलोचना और बिना किसी बौद्धिक और व्यावहारिक इम्तिहान के आख़िर क्यों उनकी विचारधाराओं को मान लें? क्या सिर्फ़ आधुनिक होना था सिर्फ़ यह वाक्रिआ कि एक चीज़ दुनिया में ज़ोर शोर से चल रही है इस बात के लिए बिल्कुल काफ़ी है कि आदमी किसी जाँच-पड़ताल के.बग़ैर उसके आगे हथियार डाल ही दे? अठारहवीं सदी की आज़ादी की अवधारणा

_ जैसा कि मैं इससे पहले इशारा कर चुका हूँ, अठारहवीं सदी में जिन दार्शनिकों, वैज्ञानिकों और साहित्यकारों ने सुधार की आवाज़ उठाई थी, उनको अस्ल में संस्कृति की एक ऐसी व्यवस्था का सामना करना पड़ रहा था जिसमें

36 परदा

तरह-तरह की जकड़बन्दियाँ थीं, जिसमें किसी भी पहलू से लोच और लचक नाम को भी थी, जो ना-मुनासिब रिवाजों, जड़ता कठोरतापूर्ण नियमों और बुद्धि और प्रकृति के ख़िलाफ़ खुले टकरावों से भरा हुआ था। एक ओर नई, बौद्धिक और व्यावहारिक जागरूकता मध्यवर्ग (80४००) में उभरने और व्यक्तिगत जिद्दोजुहद से आगे बढ़ने का जोशीला जज़्बा पैदा कर रही थी और दूसरी ओर सरदारों और धर्म के पेशवाओं का वर्ग उनके ऊपर बैठा हुआ परम्पराओं के बंधन की गांठों को मज़बूत करने में लगा हुआ था। चर्च से लेकर - फ़ौज अदालत के विभागों तक, शाही महलों से लेकर खेतों और वित्तीय लेन-देन की कोठियों तक, ज़िंदगी का हर क्षेत्र और सामूहिक संगठनों की हर संस्था इस तरह काम कर रही थी कि सिर्फ़ पहले से क्रायम किए हुए हक़ों के बल पर कुछ ख़ास वर्ग उन नए उभरनेवाले लोगों की मेहनतों और योग्यताओं के फल छीन ले जाते थे, जो मध्यवर्ग से सम्बन्ध रखते थे। हर वह कोशिश जो इस स्थिति में सुधार लाने के लिए की जाती थी, सत्ता में बैठे वर्गों के स्वार्थ “_ और अज्ञान के मुक़काबले में नाकाम हो जाती थी। इन कारणों से सुंधार और , परिवर्तन की माँग करनेवार्लों में दिन-ब-दिन अंधा इनक़िलाबी जोश पैदा होता चला गया, यहाँ तक कि आख़िर में इस पूरी सामूहिक व्यवस्था और इसके हर विभाग और हर अंग के ख़िलाफ़ बगावत का जज़्बा फैल गया और व्यक्ति की आज़ादी की एक ऐसी सोच जड़ पकड़ गई जिसका मक़सद समाज के मुक़ाबले में व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता और सम्प्रभुत्व प्रदान कर देना था। कहा जाने लगा कि व्यक्ति को पूरी आज़ादी के साथ अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ हर वह काम करने का अधिकार होना चाहिए जो उसे पसन्द आए और हर उस काम से अलग रहने की आज़ादी मिलनी चाहिए जो उसे पसन्द आए। समाज को | उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीन लेने का कोई अधिकार नहीं। सरकार की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ यह है कि व्यक्ति के काम करने की आज़ादी को सुरक्षित रखे,

* और सामूहिक संस्थाएँ सिर्फ़ इसलिए होनी चाहिएँ कि व्यक्ति को उसके मक़सद हासिल करे में मदद दें।

स्वतंत्रता की यह अतिशयोक्तिपूर्ण धारणा, जो वास्तव में एक अत्याचारपूर्ण सामूहिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ गुस्से का नतीजा थी, अपने भीतर

परदा 37

एक बड़े और भीषण फ़साद और बिगाड़ के कीयणु रखती थी। जिन लोगों ने इसे शुरू में पेश किया, वे ख़ुद भी पूरी तरह उसके तार्किक परिणामों से अवगत थे। शायद उनकी रूह काँप उठती अगर वे परिणाम उनके सामने असली रूप धारण करके जाते, जो ऐसी खुली छूट और ऐसी सरफिरी व्यक्तिगत आज़ादी का ज़रूरी परिणाम होते हैं। उन्होंने ज़्यादातर उन बेजा सख़्तियों और अनुचित बन्धनों को तोड़ने के लिए इसे एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना चाहा था जो उनके ज़माने के समाज में पाए जाते थे, लेकिन आख़िरकार इस धारणा ने पश्चिमी ज़ेहन में जड़ पकड़ ली और पलना-बढ़ना शुरू कर दिया।

उननीसर्वी सदी की तब्दीलियाँ

फ्रांस की क्रान्ति स्वतंत्रता की इसी परिकल्पना के प्रभावस्वरूप सामने आई।' इस क्रान्ति में बहुत-से पुराने नैतिक विचारों और धार्मिक तथा सांस्कृतिक नियमों की धज्जियाँ उड़ा दी गईं और जब उनका उड़ना तरक़क़ी का ज़रीआ साबित हुआ तो क्रान्तिप्रिय दिमागों ने इससे यह नतीजा निकाला कि हर वह दृष्टिकोण और हर वह कर्म-सिद्धान्त जो पहले से चला रहा है, तरक़क़ी की राह का रोड़ा है, इसे हटाए बिना क़दम आगे नहीं बढ़ सकता। अतः मसीही आचार-शास्त्र के ग़लत नियमों को तोड़ने के बाद बहुत जल्दी उनकी

. व्यक्ति की आज़ादी के इस विचार से वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था, सभ्यता की लोकतांत्रिक व्यवस्था और नैतिक आवारापन (0थ॥0०ए७॥०४५) पैदा हुआ और लगभग डेढ़ सदी के भीतर उसने यूरोप और अमरीका में इतने जुल्म ढाए कि इंसानियत उसके ख़िलाफ़ बगावत करने पर मजबूर हो गई, क्योंकि इस व्यवस्था ने व्यक्ति को सामाजिक-हित के ख़िलाफ़ स्वार्थ भरे काम का लाइसेंस देकर समाज-कल्याण की हत्या कर दी और सामाजिक जीवन को दुकड़े-टुकड़े कर दिया सोशलिज़्म (समाजवाद) और फ़ासिज़्म (फ़ासीबाद) दोनों इसी बगावत के परिणाम हैं। लेकिन इस नवनिर्माण में आरंभ से ही ख़राबी और बिगाड़ का एक रूप छिपा हुआ है। यह असल में एक इंतिहा का इलाज दूसरी इंतिहा से है। अठारहर्बी सदी की व्यक्तिगत आज़ादी की सोच की ग्रलती यह थी कि वह समाज को व्यक्ति पर क्ुरबान करती थी। और इस बीसर्वी सदी के समाज की सोच की गलती यह है कि यह व्यक्ति को समाज पर क्ुरबान करना चाहती है | इंसानियत की भलाई के लिए एक संतुलित सोच आज भी वैसे ही लुप्त है जैसी कि अठारहवीं सदी में थी।

38 फरदा

आलोचना की कैंची इंसानी आचार-शास्त्र की मूलधारणाओं पर चलने लगी। यह पाकदामनी (सतीत्व) क्या बला है? यह जवानी पर “अल्लाह के डर और परहेज़गारी की मुसीबत' आख़िर क्‍यों डाली गई है? विवाह के बिना अगर कोई किसी से मुहब्बत करे तो क्या बिगड़ जाता है? और विवाह के बाद क्या दिल आदमी के सीने से निकल जाता है कि उससे मुहब्बत करने का हक़ छीन लिया जाए? इस क़रिस्म के सवाल नई इनक़िलाबी सोसाइटी में हर ओर से उठने लगे और 'ख़ास तौर से रोमानी कथाकारों के गरोह (२०7० 8०४००) ने इनको सबसे ज़्यादा ज़ोर के साथ उठाया। उननीसर्वी सदी के शुरू में जॉर्ज साँ! (0८०४० $70) इस गरोह की लीडर थी। उस औरत ने ख़ुद उन तमाम नैतिक नियमों को तोड़ा जिनपर हमेशा से इंसानी शराफ़त और ख़ास तौर से औरत की इज़्ज़त का आधार रहा है। उसने एक शौहर की बीवी होते हुए विवाह के दायरे से बाहर आज़ादी के साथ ताल्लुक़ात कायम किए। आख़िर्कार शौहर से जुदाई हुई। इसके बाद यह दोस्त पर दोस्त बदलती चली गई और किसी के साथ साल दो साल से ज़्यादा निबाह किया। उसकी जीवनी में कम से कम छ: ऐसे आदमियों के नाम मिलते हैं जिनके साथ उसकी एलानिया और बाक़ायदा आशनाई (अवैध सम्बन्ध) रही है। उसके इन्हीं दोस्तों में से एक उसकी तारीफ़ इन लफ़ऩों में करता है --

“जॉर्ज साँ पहले एक पखवाने को पकड़ती है और उसे फूलों के पिंजरे में क़ैद करती है--यह उसकी मुहब्बत का दौर होता है, फिर वह अपनेपन से उसको चुभोना शुरू करती है और उसके फड़फड़ाने से आनन्द लेती है-- यह उसकी उदासीनता का दौर होता है और देर या सवेर यह दौर भी ज़रूर आता है फिर वह उसके पर नोचकर और उसका विश्लेषण करके उसे उन परवानों के समूह में शामिल कर लेती है जिनसे वह अपने उपन्यासों के लिए हीरो का काम लिया करती है।”'

फ्रांसीसी कवि अलफ़रेड मुसे (»०0 १०६७०) भी उसके आशिक्नों में से एक था, और आख़िरकार वह उसकी बे-वफ़ाइयों से इतना हताश हुआ कि मरते वक़्त उसने वसीयत की कि जॉर्ज साँ उसके जनाज़े (शव) पर आने पाए। यह था उस औरत का निजी कैरेक्टर जो लगभग तीस साल तक अपनी

पर्दा ०.3

सरस रचनाओं से फ्रांस की नौजवान नस्‍्लों पर गहरा असर डालता रहा। अपनें उपन्यास लेलिया (०४) में बह लेलिया की ओर से स्तेनियों (3॥४॥0) को 'लिखती है -

“जितना ही ज़्यादा मुझे दुनिया को देखने का मौक़ा मिलता है, मैं महसूस करती जाती हूँ कि मुहब्बत के बारे में हमारे नौजवानों के विचार कितने ग़लत हैं। यह ख़याल ग़लत है कि मुहब्बत एक ही से होनी चाहिए और उसका दिल पर पूरा क़ब्ज़ा होना चाहिए और वह हमेशा के लिए होनी चाहिए। निस्संदेह तमाम विभिन्‍न विचारों को गवारा करना चाहिए [मैं यह मानने के लिए तैयार हूँ कि कुछ ख़ास आत्माओं को दाम्पत्य जीवन में वफ़ादार रहने का हक़ है, मगर अक्सर कुछ दूसरी ज़रूरतें और कुछ दूसरी योग्यताएँ रखती हैं। इसके लिए ज़रूरत है कि दोनों पक्ष (मियाँ-बीवी) एक-दूसरे को आज़ादी दें, आपसी उदारता से काम लें और उस निजी स्वार्थ को दिल से निकाल दें जिसकी वजह से ईर्ष्या और दुश्मनी की भावनाएँ पैदा होती हैं। तमाम मुहब्बतें सही हैं, चाहे वे अत्यन्त तीव्र हों या शांत, वासना से भरी हुई हों या रूहानी हों, स्थिर हों या परिवर्तनशील, लोगों को आत्महत्या की ओर ले जाएँ या सुख और आनंद की ओर।”

अपने एक दूसरे नावेल जाक (॥08०७८७) में वह उस शौहर का कैरेक्टर पेश करती है जो उसके नज़दीक शौहरपने का सबसे अच्छा नमूना हो सकता था। उसके हीरो जाक की बीवी अपने आप को एक गैर मर्द की गोद में डाल देती है मगर उदार हृदय शौहर उससे नफ़रत नहीं करता और नफ़रत करने की वजह यह बयान करता है कि जो फूल मेरे बजाय किसी और को ख़ुश्बू देना चाहता है, मुझे क्या हक़ है कि उसे पाँव तले रौंद डालूँ। आगे चलकर इसी नाबेल में वह जाक की ज़बान से ये विचार सामने लाती है -

“मैंने अपनी य्य नहीं बदली, मैंने समाज से समझौता नहीं किया,

मेरी राय मैं विवाह तमाम सामूहिक तरीक़ों में वह सबसे ज़्यादा

वहशी तरीक़ा है जिसकी कल्पना की जा सकती है। मुझे यक्रीन है

40 परदा

कि आख़िरकार यह तरीक़ा समाप्त हो जाएगा, अगर इंसानी नस्ल ने

इंसाफ़ और अक़्ल की ओर कोई वाक़ई तरक़क़ी की। फिर उसकी

जगह एक दूसरा तरीक़ा लेगा जो विवाह से कम मुक़ददस (पवित्र)

होगा, मगर इससे ज़्यादा इंसानी तरीक़ा होगा। उस वक़्त इंसानी

नस्ल ऐसे मर्दों और औरतों से आगे चलेगी जो कभी एक दूसरे की

आज़ादी पर कोई पाबन्दी लगाएँगे। फ़िलहाल तो मर्द इतने स्वार्थी

और औरतें इतमी बुज़दिल हैं कि इनमें से कोई भी मौजूदा कानूनों से

ज़्यादा शरीफ़ाना क़ानून की माँग नहीं करता। हाँ, जिनमें ज़मीर

(अंन्तरात्मा) और नेकी की कमी है उनको तो भारी ज़ंजीरों में

जकड़ा ही जाना चाहिए।

ये बे विचार हैं जो 833 ई. और उसके लगभग ज़माने में ज़ाहिर किए गए थे। जॉर्ज साँ सिर्फ़ इसी हद तक जा सकी। इस विचार को आख़री तर्कसंगत नतीजों तक पहुँचाने की उसे भी हिम्मत हुई। इस आज़ाव-ख़्याली और रौशन-दिमाग़ी के बाद भी, पुराने चले रहे अख़लाक़ की अंधियारी, फिर भी कुछ कुछ उसके दिमाग़ में मौजूद थी। इसके तीस-पैंतीस साल बाद फ्रांस में नाटककारों, साहित्यकारों और नैतिक दार्शनिकों की एक दूसरी फ़ौज ज़ाहिर हुई, जिसके सरदार अलेक्ज़ेंडर दूमा (#0७८क्रातह [2008) और अलफरेड नाके (४8०0 ]५४०००८७ थे। इन लोगों ने सारा ज़ोर इस विचार के फैलाने में लगा दिया कि आज़ादी और जीवन का आनंद अपने आप में इंसान का पैदाइशी हक़ है और इस हक़ पर अख़लाक़ी नियमों और कल्चर की जकड़बन्दियाँ लगाना व्यक्ति पर समाज का जुल्म है। इससे पहले व्यक्ति के लिए अमल की आज़ादी की माँग सिर्फ़ मुहब्बत के नाम पर की जाती थी, बादवालों को यह निरी भावनात्मक बुनियाद कमज़ोर महसूस हुई, इसलिए उन्होंने व्यक्ति की स्वच्छन्दता, आवारगी और निरंकुश स्वतंत्रता को बुद्धि, दर्शन और तत्त्वदर्शिता की मज़बूत बुनियादों पर क़ायम करने की कोशिश की, ताकि नौजवान मर्द और औरतें जो कुछ भी करें, दिल दिमाग़ के पूरे इत्मीनान के साथ करें और समाज सिर्फ़ यही नहीं कि उनकी जवानी की उच्छृंखलता को देखकर दम मार सके, बल्कि नेतिक रूप से उसे ही जायज़ और बेहतर समझे।

पर्दा न्‍्वी

उन्‍नीसर्वीं सदी के आख़िरी दौर में पॉल एडम (280 /५१७7), हेनरी बताली (पथाओए 829ा]९), पेरे लूई (एशंध्याढ ।.075) और दूसरे बहुत-से साहित्यकारों ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति नौजवानों में उच्छृंखलता और दुस्साहस उत्पन्न करने पर लगा दी ताकि पारम्परिक नैतिक विचारों के बचे-खुचे प्रभावों से जो झिझक और रुकावट स्वभावों में बाक़ी है, वह निकल जाए। अतएव पॉल एडम अपनी किताब )(००७४॥८ 06 7.' |४०४ में नौजवानों की उनकी इस अज्ञानता और मूर्खता पर दिल खोलकर भर्त्सना करता है कि वे जिस लड़की या लड़के से प्रेम-सम्बन्ध स्थापित करते हैं, उसको झूठ-मूठ यह यकीन दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे उसपर मर-मिटे हैं और उससे सच्चा इश्क़ (प्रेम) रखतें है और हमेशा उसी के होकर रहेंगे।

फिर कहता है --

“थे सब बातें इसलिए की जाती हैं कि दैहिक आनन्द की वास्तविक इच्छा को, जो स्वाभाविक रूप से प्रत्येक व्यक्ति में होती है और जिसमें, सचमुच कोई बात गुनाह या बुराई की नहीं है, पुराने विचारों के कारण ऐब की बात समझी जाती है और इसलिए मनुष्य व्यर्थ ही मिथ्या शब्दों के आवरण में उसको छिपाने का प्रयास करता है। लेखिनी प्रजातियों (क्रौमों) की यह बड़ी कमज़ोरी है कि उनमें प्रेमी- युगल एक-दूसरे पर इस बात को साफ़-साफ़ प्रकट करते हुए झिझकते हैं कि मिलन से उनका मक़सद केवल एक शारीरिक इच्छा को पूरा करना और आनन्द लेना है।”

और इसके बाद नौजवानों को मशविरा देता है --

“'शिष्ट और सभ्य मनुष्य बनो। अपनी इच्छाओं और बासनाओं की यूर्तति करानेवाले सेवकों को अपना आराध्य बना लो। मूर्ख है वह जो प्रेम का मन्दिर निर्मित करके उसमें एक ही बुत (आराध्य) का पुजारी बनकर बैठ जाता है। आनन्द की हर घड़ी में एक नए मेहमान का चयन करना चाहिए।

. इसका अर्थ समझने में ग़लती कीजिए। इनसे अभिप्राय वे औरतें या मर्द हैं, जिनको एक मर्द

या औरत अपनी वासना की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करे।

42

पर्दा

पेंरे लूई ने इन सबसे चार क़दम आगे बढ़कर पूरे ज़ोर के साथ इस बात का एलान किया कि नैतिकता के बन्धन असल में इंसानी ज़ेहन और दिमागी ताक़तों के विकास में रुकावर्टे डालते हैं, जब तक इनको बिल्कुल तोड़ दिया जाए और इंसान पूरी आज़ादी के साथ शारीरिक सुखों का आनन्द ले, कोई बौद्धिक एवं ज्ञानात्मक तथा भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास संभव नहीं है। अपनी किताब अफ़रोडाइट (७.७॥7००॥०) में वह अपनी पूरी शक्ति के साथ यह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि बाबिल, अस्कन्दरिया, एर्थेंस, रोम, वेनिस और संस्कृति एवं सभ्यता के अन्य सभी केन्द्रों की बहार और उत्थान तथा उत्कर्ष का ज़माना वह था जब वहाँ नशा, आवारगी और नफ़्सपरस्ती ([/०७॥४००४॥४७७) पूरे ज़ोर पर थी, मगर जब वहाँ अख़लाक़ी और क़ानूनी बन्धन इंसानी इच्छाओं पर लगाए गए तो इच्छाओं के साथ-साथ आदमी की रूह भी उन्हीं बन्धनों में जकड़ गई।

यह पेरे लूई वह आदमी है जो अपने दौर में फ्रांस का नामी साहित्यकार, अपनी ख़ास शैलीवाला लेखक और साहित्य की एक ख़ास विचारधारा का रहनुमा था। उसके अनुकरण में कहानीकारों, नाटककारों और अख़लाक़ी मसलों (समस्यायों) पर लिखनेवालों की एक फ़ौज थी जो उसके विचारों को फैलाने में लगी हुई थी। उसने अपने क़लम की पूरी ताक़त नंगेपन और मर्द औरत की स्वच्छन्दता को सराहने में लगा दी।

अपनी इस किताब 'अफ़रोडाइट' में बह यूनान के उस दौर का महिमागान करता है--

“जबकि नंगी मानवता--पूर्णतम रूप, जिसकी हम कल्पना कर सकते हैं और जिसके सम्बन्ध में धर्मवालों ने हमें विश्वास दिलाया है कि ईश्वर ने उसे स्वयं अपनी सूरत पर पैदा किया है--एक पवित्र बेश्या के रूप में हज़ारों भाव-भंगिमाओं (नाज़ो-अदा) के साथ अपने आपको 20 हज़ार दर्शनार्थियों के सामने पेश कर सकती थी, जबकि उच्च स्तरीय वासनामय प्रेम--वही महिमामय अलौकिक प्रेम, जिससे हम सब पैदा हुए हैं पाप था, लज्जा की वस्तु थी, गन्दी और अपवित्र थी।*

पर्दा 43

हद यह है कि समस्त पद्मात्मक आवरणों को हटाकर उसने स्पष्ट शब्दों में यहाँ तक कह दिया कि हमको--

“अत्यन्त शक्तिशाली नैतिक शिक्षा के द्वारा इस घृणित विचार का उन्मूलन.कर देना चाहिए कि औरत का माँ होना किसी स्थिति में लज्जास्पद, अवैध, अपमानजनक और मर्यादाओं से गिरा हुआ भी होता है।'”

बीसवीं सदी की तरक़्क़ी

उननीसवीं सदी में विचारों की तरक़क़ी यहाँ तक पहुँच चुकी थीं। बीसवीं सदी के शुरू में नवं-आरोही सामने आते हैं, जो अपने अगलों से भी ऊँची उड़ान भरने की कोशिश करते हैं। सन्‌ 908 ई. में पेरे वोल्फ़ (6७ ५४००१ और गैस्तां लेरो (588०॥॥.००५७) का एक नाटक ॥.99$ प्रकाशित हुआ, जिसमें दो लड़कियाँ अपने जवान भाई के सामने अपने बाप से इस मसले पर बहस करती नज़र आती हैं कि उन्हें आज़ादी के साथ मुहब्बत करने का हक़ है और यह कि 'दिल-लगी' के बगैर ज़िंदगी गुज़ारना एक जवान लड़की के लिए कितना दुखद होता है। एक बूढ़ा बाप अपनी बेटी की इस बात पर निंदा करता है कि वह एक नौयुवक से अवैध सम्बन्ध रखती है। उसके जवाब में बेटी कहती

“मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ, तुमने कभी यह समझा ही नहीं कि किसी व्यक्ति को किसी लड़की से, भले ही वहं उसकी बहन या बेटी ही क्यों हो, यह माँग करने का हक़ नहीं है कि वह मुहब्ब॒र्त किए बिना बूढ़ी हो जाए।''

महायुद्ध ने इस स्वतंत्रता ऑन्दोलन को और ज़्यादा बढ़ाया, बल्कि उच्चतम शिखर तक पहुँचा दिया। गर्भ-नेरोधक आन्दोलन का असर सबसे ज़्यादा फ्रांस पर हुआ था। लगातार चालीस साल से फ्रांस की जन्म-दर घट रही थी। फ्रांस के 87 ज़िलों में से सिर्फ़ बीस ज़िले ऐसे थे जिनमें जन्म-दर, मृत्यु- दर से ज़्यादा थी, बाक़ी 67 ज़िलों में मृत्य-दर, जन्म-दर से बढ़ी हुई थी। देश के कुछ हिस्सों का तो यह हाल था कि वहाँ हर सौ बच्चों की पैदाइश के मुक़ाबले में 30, 40 और 60 तक मृत्यु-संख्या का औसत था। लड़ाई

44 प्रदा

छिड़ी तो ठीक उस वक़्त जबकि फ्रांसीसी क़ौम की मौत और ज़िंदगी का फ़ैसला सामने था। फ्रांस के व्यवस्थापकों को मालूम हुआ कि क्नौम की गोद में लड़ने के क़ाबिल नौजवान बहुत ही कम हैं। अगर इस वक़्तं इन छोटी-सी 'तादादवाले जवानों को भेंट चढ़ाकर क़ौमी ज़िंदगी की हिफ़ाज़त भी कर ली गई तो दुश्मन के दूसरे हमले में बच जाना मुश्किल होगा। इस एहसास ने यकायक तमाम फ्रांस में जन्म-दर बढ़ाने का जुनून पैदा कर दिया और हर ओर से लेखकों, पत्रकारों, बकताओं ने और हद यह है कि संजीदा उलमा और नेताओं तक ने एक आवाज़ होकर पुकारना शुरू किया कि बच्चे जनो और जनवाओ और विवाह के पारम्परिक प्रतिबन्धों की कुछ परवाह करो। हर वह कुंवारी लड़की और विधवा, जो बतन के लिए अपने गर्भाशय को स्वेच्छा से पेश करती है, निंदा की नहीं, इज़्ज़त की हक़दार है। उस ज़माने में आज़ादी-पसन्द लोगों को स्वाभाविक रूप से प्रोत्साहन मिल गया, इसलिए उन्होंने समय को अनुकूल देखकर वे सारी विचारधाराएँ फैला दीं जो शैतान के थैले में बची-खुची रह गई थीं।

उस ज़माने का एक मशहूर पत्रकार, जो 'लालियोन रिपब्लिकना (.॥9ण 7२००ए०॥४८०४० का एडीटर था, इस सवाल पर बहस करते हुए कि “बलात्कार! आख़िर क्यों अपराध है? यूँ अपने विचार प्रकट करता है -

“वरीब लोग जब भूख से मजबूर होकर चोरी और लूट-मार करने पर उतर आते हैं तो-कहा जाता है कि उनको रोटी उपलब्ध कराओ, लूट-मार आप से आप बन्द हो जाएगी। मगर अजीब बात है कि हमदर्दी और समानता की जो भावना देह की एक स्वाभाविक ज़रूरत के मुक़ाबले में उभर आती है, वह दूसरी वैसी ही स्वाभाविक और उतनी ही अहम ज़रूरत, यानी मुहब्बत के लिए क्यों नहीं उभरती? जिस तरह चोरी आम तौर से भूख की ज़्यादती का नतीजा होती है, वैसे ही वह चीज़ जिसका नतीजा बलात्कार और करभी- कभी क़त्ल की शक्ल में निकलता है, उस ज़रूरत के ज़बरदस्त तक़ाज़े से पेश आती है जो भूख और प्यास से कुछ कम स्वाभाविक नहीं है। एक तन्दुरुस्त आदमी, जो सेहतमंद और जवान हो, अपनी

परदा 45

वासना को नहीं रोक सकता, जिस तरह वह अपनी भूख को इस वादे पर नहीं रोक सकता +कि अगले हफ़्ते रोटी मिल जाएगी। हमारे शहरों में जहाँ सब कुछ बहुतायत के साथ मौजूद है, एक जवान आदमी की वासना का उपवास भी उतना ही अफ़सोसनाक है जितना कि ग़रीब आदमी के पेट का उपवास। जिस तरह भूखों को रोटी मुफ़्त बाँटी जाती है, ऐसे ही दूसरे क्रिस्म की भूख से जो लोग मर रहे हैं, उनके लिए भी हमें कोई इन्तिज़ाम करना चाहिए।””

बस इतना और समझ लीजिए कि यह कोई हास्य-व्यंग्य लेख नहीं था, पूरी गंभीरतापूर्वक लिखा गया और गंभीरतापूर्वक ही फ्रांस में पढ़ा भी गया।

इसी दौर में पेरिस की फ़ैकल्टी आफ़ मेडिसिन ने एक विद्वान डाक्टर का लेख डाक्ट्रेट की डिग्री प्रदान करने के लिए चुनां और अपने सरकारी पत्र में उसे छापा, जिसमें निम्नलिखित वाक्य भी पाए जाते हैं-

“हमें उम्मीद है कि कभी वह दिन भी आएगा जब हम बिना झूठी शान और कगैर किसी शर्म हया के यह कह दिया करेंगे कि मुझे बीस साल की उम्र में आतशक (सिफ़िलिस बीमारी) हुई थी, जिस तरह अब बे-तकल्लुफ़ कह देते हैं कि मुझे ख़ून थूकने की वजह से पहाड़ पर भेज दिया गया था.....ये रोग ज़िंदगी के आनन्द की क्रीमत है। जिसने अपनी जवानी..... इस तरह बिताई कि इनमें से कोई रोग पैदा होने की नौबत आई वह एक अधूरा बुजूद है। उसने बुज़दिली या ठंडेपन या मज़हबी ग़लतफ़हमी की वजह से इस स्वाभाविक काम के करे में ग़ुफ़लत दिखाई जो उसके फ़ितरी कार्यो में शायद सब से छोटा वज़ीफ़ा (कार्य) था।”

नव-मालथसवादी आन्दोलन का साहित्य

आगे बढ़ने से पहले एक नज़र उन विचारों पर भी डाल लीजिए जो गर्भ- निरोधी आन्दोलन के सिलसिले में पेश किए गए हैं। अठारहवीं सदी के आखिर में जब अंग्रेज़ अर्थशास्त्री (2007णांड) मालथस (४७४०5) ने तेज़ी से बढ़ती आबादी को रोकने के लिए बर्थ-कंट्रोल का प्रस्ताव पेश किया था। उस

46 पर्दा

वक़्त उसके स्वप्न में भी यह बात आई होगी कि उसका यही प्रस्तआव एक सदी बाद व्यभिचार और बेहयाई को बढ़ाने में सबसे बढ़कर मददगार साबित होगा। उसने उपनिवेश की जनसंख्या बृद्धि को रोकने के लिए आत्म-नियंत्रण और बड़ी उम्र में विवाह करने का परामर्श दिया था, मगर उन्‍नीसवीं सदी के आखिर में जब नव-मालथसी आन्दोलन (९९०-)४०॥पञ्नंग्रा ॥श०ए०यल्या) उठा तो उसका मूल सिद्धान्त यह था कि मन की कामना को आज़ादी के साथ पूरा किया जाए और उसके स्वाभाविक नतीजे यानी औलाद की पैदाइश को वैज्ञानिक साधनों से रोक दिया जाए। इस चीज़ ने व्यभिचार के रास्ते से बह आख़िरी रुकाबट भी दूर कर दी जो स्वच्छन्द यौन-सम्बन्ध रखने में रुकावट बन सकती थी। क्योंकि अब एक औरत इस डर के १बना अपने आप को एक मर्द के हवाले कर सकती है कि उससे औलाद होगी और उसपर ज़िम्मेदारियों का बोझ पड़ेगा। इनके परिणाम बयान करने का यहाँ मौक़ा नहीं है। यहाँ हम उन विचारों के कुछ नमूने पेश करना चाहते हैं जो बर्थ-कन्ट्रोल के लिट्रेचर में बहुतायत से फैलाए गए हैं।

इस लिट्रेचर में नव मालथसवादी सिद्धान्त सामान्यतः जिन तकों के साथ प्रस्तुत किया जाता है, उसका सार यह है --

“प्रत्येक मनुष्य को स्वाभाविक रूप से तीन सर्वाधिक प्रबल और शक्तिशाली आवश्यकताओं से बास्ता पड़ता है----पहली भोजन की आवश्यकता; दूसरी आराम की आवश्यकता और तीसरी काम- वासना की आवश्यकता | प्रकृति ने इन तीनों को पूरी शक्ति के साथ मनुष्य में समाहित कर रखा है और इनकी पूर्चि में एक विशिष्ट आनन्दानुभूति रखी है, ताकि मनुष्य इनकी पूर्त्ति की कामना कर सके। बुद्धि और तर्क का तक़ाज़ा यह है कि आदमी इन्हें पूरा करने की ओर लपके, और पहली और दूसरी चीज़ों के मामले में उसका आचरण है भी यही। मगर यह अजीब बात है कि तीसरी चीज़ के मामले में उसका आचरण अलग है। सामूहिक शिष्टाचार ने उसपर प्रतिबंध लगा दिया है कि यौनेच्छा की पूर्त्ति विवाह की सीमा से बाहर की जाए और विवाह की सीमाओं में पति-पत्नी के लिए

पर्दा 47

वफ़ादारी, पाकदामनी और पवित्रता अनिवार्थ कर दी गई है और इसपर आगे बढ़कर यह शर्त भी लगा दी गई है कि सन्तानोत्पत्ति को रोका जाए। ये सब बातें पूर्णत: निरर्थक हैं। बुद्धि और प्रकृति के विरुद्ध हैं। अपने सिद्धान्त की दृष्टि से भी ग़लत हैं और इंसानियत के लिए सब से बुरे नतीजे पैदा करने वाली हैं।''

इन भूमिकाओं पर जिन विचारों की इमारत खड़ी होती है,.अब तनिक वे भी देखिए -

जर्मन- सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी का लीडर बेबील (890०७) निहायत बे- तकल्लुफ़ी के साथ लिखता है -

“औरत और मर्द आख़िर हैवान ही तो हैं। क्‍या हैवानों के जोड़ों में विवाह और वह भी हमेशा रहनेवाले विवाह का कोई सवाल पैदा हो

सकता है?

डॉक्टर ड्रेस्डेल ()795096) लिखता है-

“हमारी तमाम इच्छाओं की तरह मुहब्बत भी एक बदलती रहने वाली चीज़ है। उसको एक तरीक़े के साथ ख़ास कर देना, प्रकृति के क़ानूनों को बदल देना है। नौजवान ख़ास तौर से इस परिरवतन के प्रति आसक्ति रखते हैं और उनकी यह आसक्त प्रकृति के उस भव्य तर्कसगंत व्यवस्था के अनुकूल है जिसका तक़ाज़ा यही है कि हमारे तजुर्ब नए-नएं हों.....आज़ाद ताल्लुक़ एक उच्चतर अख़लाक़ का पता देता है, इसलिए कि वह प्रकृति के कानूनों से ज़्यादा मेल खाता है, और इसलिए भी कि वह सीधे तौर पर भावनाओं, एहसास और बे-गरज़ मुहब्बत से प्रकट होता है। जिस आसक्ति और अभिरुचि से यह सम्बन्ध स्थापित होता है, वह बड़ी अख़लाक़ी क़द्र क़ीमत रखता है। यह बात भला उस व्यापारिक कारोबार को कहाँ प्राप्त हो सकती है जो विवाह को हक़ीक़त में पेशा (270590770॥) बना देता है।”

देखिए, अब दृष्टिकोण बदल रहा है, बल्कि उलट रहा है। पहले तो यह

48 *:

परदा

कोशिश थी कि ज़िना को अख़लाक़ी तौर पर बुरा समझने का ख़्याल दिलों से निकल जाए और विवाह और अवैध यौन-सम्बन्ध दोनों दर्ज में बराबर हो जाएँ, अब आगे क़दम बढ़ाकर विवाह को बुरा और अवैध यौन सम्बन्ध को अख़लाक़ी बरतरी का दर्जा दिलवाया जा रहा है।

एक और मौक़े पर यही डाक्टर साहब लिखते हैं -

“ऐसा उपाय अपनाने की ज़रूरत है कि शादी के बिना भी मुहब्बत

को एक प्रतिष्ठित चीज़ बना दिया जाए....यह ख़ुशी की बात है कि

तलाक़ की आसानी इस विवाह के तरीक़े को धीरे-धीरे ख़त्म कर

रही है, क्योंकि अब विवाह बस दो आदमियों के बीच मिलकर. * ज़िंदगी गुज़ारने का ऐसा समझौता है जिसको दोनों फ़रीक़ (पक्ष) '

जब चाहें ख़त्म कर सकते हैं। यह यौन-सम्बन्ध का एक ही सही

तरीक़ा है।

फ्रांस का प्रसिद्ध नव मालथसवादी लीडर पॉल रोबिन (00ण २०७॥) लिखता है --

“पिछले 25 साल में हमको इतनी सफलता तो मिल ही चुकी है कि हरामी बच्चे (अवैध सन्तान) को क़रीब-क़रीब हलाली बच्चे (वैध सन्‍्तान) के दर्ज के बराबर कर दिया गया है। अब सिर्फ़ इतनी कसर' बाक़ी है कि सिर्फ़ पहली ही क्विस्म के बच्चे पैदा हुआ करें, ताकि मुक़ाबले का सवाल ही बाक़ी रहे।

इंग्लैंड का प्रसिद्ध दार्शनिक 'मिल' अपनी किताब आज़ादी (0॥ /0०7/9) में इस बात पर बड़ा ज़ोर देता है कि ऐसे लोगों को शादी करने से क़ानूनन रोक दिया जाए जो इस बात का सुबूत दे सकें कि वे ज़िंदगी गुज़ारने के लिए काफ़ी साधन रखते हैं। लेकिन जिस वक़्त इंग्लैंड में वेश्यावृत्ति (0०६४ ए४०) की रोक-थाम का सवाल उठा तो इसी विद्वान दार्शनिक ने बड़ी सख़्ती से इसका विरोध किया। दलील यह थी कि यह व्यक्तिगत आज़ादी पर हमला है और वर्कर्ज़ (वेश्यावृत्ति में लिप्त लोगों) की तौहीन है, क्योंकि यह तो उनके साथ बच्चों जैसा सुलूक करना हुआ |

परदा 49

विचार कीजिए, व्यक्तिगत आज़ादी का आदर इसलिए है कि इससे 'फ़ायदा उठाकर व्यभिचार किया जाए। लेकिन अगर कोई मूर्ख इसी व्यक्तिगत आज़ादी से फ़ायदा उठाकर विवाह करना चाहे तो बह हरगिज़ इसका हक़दार नहीं है कि उसकी आज़ादी की हिफ़ाज़त की जाए। उसकी आज़ादी में क़ानून का हस्तक्षेप सिर्फ़ यह कि गवारा किया जाएगा बल्कि स्वतंत्रताप्रिय दार्शनिक की अन्तरात्मा इसको पूर्णतः वांछित ठहराएगी! यहाँ नैतिक दृष्टिकोण की क्रान्ति अपने उत्कर्ष को पहुँच जाती है। जो अवगुण था, वह गुण हो गया और जो गुण था वह अवगुण हो गया। | है

50 परदा

अध्याय-4

परिणाम

लिट्रेचर पेशक्रदमी करता है, जनमत उसके पीछे आता है। अन्त में सामूहिक नैतिकता, सोसाइटी के नियम और हुकूमत के क़ानून सब हथियार डालते जाते हैं। जहाँ लगातार डेढ़ सौ वर्ष तक दर्शनशास्त्र, इतिहास, नीतिशास्त्र, ज्ञान-विज्ञान, नाटक, थिएटर, आर्ट उपन्यास, तात्पर्य यह कि दिमाग़ों को तैयार करनेवाले और ज़ेहनों को ढालनेबाले तमाम औज़ार मिलकर पूरी ताक़त के साथ एक ही सोच को इंसानी ज़ेहन के एक-एक रेशे में बिठाने . की कोशिश करते रहें, वहाँ उस बिचार-शैली से समाज का प्रभावित होना असंभव है। फिर जिस जगह हुकूमत और सारी सामूहिक संस्थाओं की बुनियाद लोकतांत्रिक नियमों पर हो, वहाँ यह भी संभव नहीं है कि जनमत की तब्दीली के साथ क़ानूनों में तब्दीली हो।

औद्योगिक क्रान्ति और उसके प्रभाव

संयोगवश उसी समय दूसरे सांस्कृतिक तथा सामाजिक कारण भी अनुकूल हो गए। उसी ज़माने में औद्योगिक क्रान्ति (रतञ्ञांध २९४०ए४०॥) हुई उससे आर्थिक जीवन में जो तब्दीलियाँ हुई और सामाजिक जीवन पर उनके जो... असर पड़े, वे सब के सब हालात का रुख़ इसी दिशा में फेर देने के लिए तैयार थे, जिधर यह क्रान्तिकारी लिट्रेचर उन्हें फेरना चाहता था। व्यक्ति की आज़ादी की जिस अवधारणा पर पूँजीवादी व्यवस्था का निर्माण हुआ था, उसको मशीन के आविष्कारों और उत्पादन की वृद्धि (१/855 97000०४०७) की संभावनाओं ने असाधारण शक्ति प्रदान कर दी पूँजीपतियों ने बड़े-बड़े औद्योगिक संस्थान और व्यापारिक केन्द्र स्थापित किए। उद्योग और व्यापार के नए केन्द्र धीरे-धीरे शानदार शहर बन गए। देहातों और दूर-दूर के इलाक़ों से लाखों-करोड़ों इंसान. खिंच-खिंचकर उन शहरों में जमा होते चले गए। ज़िंदगी हद से ज़्यादा महँगी हो गई। मकान, कपड़ा, खाना और ज़िंदगी की दूसरी ज़रूरतों पर आग बरसने लगी। कुछ सांस्कृतिक प्रगति की वजह से और कुछ पूँजीपतियों की कोशिशों

परदा 54

से ऐश की अनगिनत नई चीज़ें भी ज़िंदगी की आवश्यकताओं में दाखिल हो गईं।

मगर पूँजीवादी व्यवस्था ने दौलत का बँटबारा इस तरीक़े पर नहीं किया कि जिन सुविधाओं, लज़्ज़तों और सजावटों को उसने ज़िंदगी की ज़रूरतों में दाख़िल किया था, उन्हें हासिल करने के लिए साधन भी उसी पैमाने पर सब लोगों को जुटाता। उसने तो आम लोगों को आजीबिका के इतने साधन भी जुटाए कि जिन बड़े-बड़े शहरों में वह उनको घसीट लाया था, वहाँ कम से कम ज़िंदगी की हक़ीक़ी ज़रूरतें--मकान, खाना और कपड़ा वगैरह--भी आसानी से उनको हासिल हो सकतीं। इसका नतीजा यह हुआ कि शौहर पर बीवी और बाप पर औलाद तक भारी बोझ बन गई। हर आदमी के लिए ख़ुद अपने आप ही को सँभालना मुश्किल हो गया, कहाँ यह कि वह दूसरे मुताल्लिक़ लोगों का बोझ उठाए। आर्थिक परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया कि हर आदमी कमाने वाला आदमी बन जाए, कुँवारी और शादीशुदा और विधवा सब ही क्लिस्म की औरतों को धीरे-धीरे रोज़ी कमाने के लिए निकल आना पड़ा। फिर जब मर्दों और औरतों के मेल-जोल और ताल्लुक़ के मौक़े ज़्यादा बढ़े और उसके स्वाभाविक नतीजे ज़ाहिर होने लगे तो उसी बैयक्तिक आज़ादी की अवधारणा और उसी नैतिकता के नए दर्शन ने आगे बढ़कर बापों और बेटियों, बहनों और भाईयों, शौहरों और बीवियों, सबको इत्मीनान दिलाया कि कुछ घबराने की

बात नहीं। जो कुछ हो रहा है, अच्छा हो रहा है। यह पतन नहीं, उत्थान

.. (ग्रभाथंएआण० है, यह दुराचार नहीं, ज़िंदगी का सही आनन्द है। यह गढ़ा जिसमें पूँजीपति तुम्हें फेक रहा है, दोज़ख़ नहीं, जन्नत है जल्त ! पूँजीवादी स्वार्थ

और मामला यहीं तक नहीं रहा। वैयक्तिक आज़ादी की इस अवधारणा पर जिस पूँजीवादी व्यवस्था की नींव डाली गई थी, उसने व्यक्ति को हर संभव तरीक़े से दौलत कमाने का, बिना किसी शर्त और बिना किसी हद-बन्दी के,

इजाज़तनामा दे दिया और नैतिकता के नए दर्शन ने हर उस तरीक़े को हलाल (वैध) और पाक ठहराया जिससे दौलत कमाई जा सकती हो, भले ही एक

52 परदा

आदमी की दौलतमंदी कितने ही लोगों की तबाही का नतीजा हो। इस तरह सम्पूर्ण सामाजिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्था ऐसे तरीक़े पर बनी जो समूह के मुक़ाबले में हर दृष्टि से व्यक्ति का समर्थक था और व्यक्तिगत स्वार्थों की तुलना में समूह के लिए सुरक्षा का कोई उपाय था। स्वार्थी व्यक्तियों के लिए समाज पर डाका डालने के सारे रास्ते खुल गए। उन्होंने तमाम इंसानी कमज़ोरियों की चुन-चुन कर ताका और उन्हें अपने स्वार्थों के लिए इस्तेमाल (759)0४) करने के नित नए तरीक़े अपनाने शुरू किए। एक आदमी उठता है और वह अपनी जेब भरने के लिए लोगों को मदिरापान की लानत में फँसाता चला जाता है। कोई नहीं जो समाज को इस प्लेग के चूहे से बचाए। दूसरा उठता है और वह सूदख़ोरी (ब्याज खाने-खिलाने) का जाल दुनिया में फैला देता है, कोई नहीं " जो इस जोंक से लोगों के जीवन-रक्त की सुरक्षा करे, बल्कि सारे क़ानून उसी जोंक के हित की रक्षा कर रहे हैं, ताकि कोई उससे ख़ून की एक बूँद भी बचा सके | --- तीसरा उठता है और वह जुएबाज़ी के अजीब तरीक़े को रिवाज देता है, यहाँ तक कि व्यापार के भी किसी विभाग को जुर्बाज़ी के तत्त्व से ख़ाली नहीं छोड़ता। कोई नहीं जो इस तेज़ बुख़ार से मनुष्य की आजीविका की सुरक्षा करे। |

वैयक्तिक स्वच्छन्दता, अवज्ञाकारिता, जुल्म और अत्याचार के इस नापाक दौर में असंभव था कि स्वार्थी लोगों की नज़र इंसान की इस बड़ी और बहुत गंभीर कमज़ोरी--काम वासना--पर पड़ती, जिसको भड़काकर बहुत कुछ फ़ायदा उठाया जा सकता था। अतः उससे भी काम लिया गया और इतना काम लिया गया, जितना लेना मुम्किन था। थिएटरों में, नाचघरों में और फ़िल्मसाज़ी के केन्द्रों में सोरे कारोबार की धुरी ही यह बनी कि ख़ूबसूरत औरतों की सेवाएँ प्राप्त की जाएँ। उनको अधिक से अधिक नग्न और अधिक से अधिक उत्तेजक रूप में लोगों के सामने लाया जाए और इस तरह लोगों की वासना की प्यास को अधिक से अधिक भड़काकर उनकी जेबों पर डाका डाला जाए कुछ दूसरे लोगों ने औरतों को किराए पर चलाने का इन्तिज़ाम किया और वेश्याबृत्ति को बढ़ावा देकर एक अत्यन्त संगठित अन्तरीष्टीय व्यापार की... हद तक पहुँचा दिया। कुछ और लोगों ने बनाव-श्रृंगार और साज-सज्जा के

प्रदा न्क्् 53

अजीब-अजीब सामान निकाले और उनको ख़ूब फैलाया, ताकि औरतों की जन्मजात सौन्दर्यप्रियता की भावना को बढ़ावा देंकर दीवानगी तक पहुँचा दें। और इस तरह दोनों हाथों से दौलत समेंटें। कुछ और लोगों ने घहनावे के नए वासनामय और नमतापूर्ण फ़ैशन निकाले और ख़ूबसूरत औरतों. को इसलिए मुक़र्र किया कि वे इन्हें पहनकर समाज में फिरें, ताकि नौजवान मर्द ज़्यादा से ज़्यादा उनकी ओर आकर्षित हों और नौजवान लड़कियों में इन पहनावों को पहनने का शौक़ पैदा हो और इस तरह उस पहनावे को ईजाद करनेवाले का व्यापार फले-फूले। कुछ और लोगों ने नंगी तस्वीरें और अश्लील लेख के प्रकाशन को रुपये ऐंठने का ज़रीआ बनाया और इस तरह आम लोगों को नैतिक कोढ़ में ग्रस्त करके ख़ुद अपनी जेबें भरनीं शुरू कर दीं। धीरे-धीरे नौबत यहाँ. तक पहुँची कि मुश्किल ही से व्यापार का कोई विभाग ऐसा बाक़ी रह गया जिसमें काम-वासना का कोई तत्त्व शामिल हो। किसी व्यापारिक कारोबार के विज्ञापन को देख लीजिए, .औरत की नग्न या अर्द्धनन तस्वीर उसका अभिन्‍न अंग होगी। मानो औरत के बिना कोई विज्ञापन विज्ञापन ही नहीं हो सकता।

होटल, रेस्तराँ, शोरूम, कोई जगह आपको ऐसी मिलेगी जहाँ औरत इस मक़सद से रखी गई हो कि मर्द उसकी ओर खिंचकर आएँ। बेचारी सोसाइटी जिसकी हिफ़ाज़त करनेवाला कोई नहीं, सिर्फ़ एक ही ज़रीए से अपने हित की हिफ़ाज़त कर सकती थी कि ख़ुद अपनी नैतिक धारणाओं से इन हमलों से बचाव करती और इस वासना को अपने ऊपर सवार होने देती। मगर पूँजीवादी व्यवस्था ऐसी कच्ची बुनियादों पर नहीं खड़ी हुई थी कि यूँ उसके हमलों को रोका जा सकता। उसके साथ एक मुकम्मल दर्शन और एक ज़बरदस्त शैतानी फ़ौज--लिट्रेचर--भी तो था जो साथ-साथ नैतिक दृष्टिकोणों को ध्वस्त और पराजित भी करता जा रहा था हत्यारे का कमाल यही है कि जिसे क़त्ल करने जाए उसे राज़ी-ख़ुशी से क़त्ल होने के लिए तैयार कर दे।

लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था मुसीबत इतने पर भी ख़त्म हुई। बल्कि इससे भी अधिक यह कि

जव परदा

आज़ादी की इसी धारणा ने पश्चिम में लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था को जन्म दिया, जो इस नैतिक क्रान्ति के पूरा करने में एक ताक़तवर ज़रीआ बन गया।

आधुनिक लोकतंत्र कां मूल सिद्धान्त यह है कि लोग स्वयं अपने और अपने शासक के लिए विधि-निर्माता हैं, जैसे क़ानून चाहें, अपने लिंए बनाएँ और जिन क़ानूनों को पसन्द करें, उनमें जैसा चाहें संशोधन और निरस्तीकरण करें उनके ऊपर कोई ऐसी उच्चतर सत्ता नहीं जो मानवीय दुर्बलताओं से रहित हो और जिसके मार्गदर्शन के आगे सर झुकाकर इंसान पथग्रष्टता से बच सकता हो। उनके पास कोई ऐसा बुनियादी क़ानून नहीं जो अटल हो और इंसान के हस्तेक्षप से बाहर हो और जिसके नियमों को अपरिवर्तनीय माना जाए। उनके लिए कोई ऐसा मानदण्ड नहीं है जो सही और ग़लत में फ़र्क़ करने की कसौटी हो और मानवीय इच्छाओं के साथ बदलनेवाला हो, बल्कि चिरस्थायी और टिकाऊ हो। इस तरह लोकतंत्र की नई धारणा ने इंसान को बिल्कुल स्वेच्छाधारी और गैरज़िम्मेदार मानकर स्वयं अपना विधि निर्माता बना दिया और हर प्रकार का क़ानून बनाने का आधार केवल जनमत पर रख दिया।

अब यह स्पष्ट है कि जहाँ सामूहिक जीवन के सारे क़ांनून जनमत के अधीन हों और जहाँ संत्ता इसी आधुनिक लोकतंत्र के ख़ुदा की गुलाम हो, वहाँ क़ानून और राजनीति की ताक़तें किसी तरह समाज को नैतिक.बिगाड़ और * . अनाचार से नहीं बचा सकतीं। बल्कि बचाने का क्या मतलब, आख़िरकार वे ख़ुद उसको तबाह करने में मददगार बनक़र रहेंगी। आम राय के प्रत्येक परिवर्तन के साथ क़ानून भी बदलता चला जाएगा। ज्यों-ज्यों जनसामान्य की सोच बदलेगी, क़ानून के नियम और सिद्धांत भी उनके मुताबिक ढलते जाएँगे। सत्य, 'कल्याण और भलाई का कोई मानदण्ड इसके सिवा होगा कि वोट किस तरफ़ ज़्यादा हैं। एक प्रस्ताव, चाहे वह अपने आप में कितना ही बुरा क्‍यों हो, अगर आम लोगों में इतनी मक़बूलियत हासिल कर चुका है कि वह 00 में से 5 वोट हासिल कर सकता है, तो उसको प्रस्ताव के दर्जे से उन्‍नति करके क़ानून बन जाने से कोई चीज़ रोक नहीं सकती। इसकी बदतरीन और आँखें खोलनेवाली मिसाल वह है जो नाज़ी दौर से पहले जर्मनी में प्रकट हुई। जर्मनी

फ्र्दा 5

में एक साहब डॉक्टर मैगनस हिर्शफ़िल्ड (8९775 घ॥5८॥॥०१) हैं जो दुनिया की लैंगिक सुधार सभा (ज्णतव€ब88 ण॑ $०पाबर ए८णिा) के अध्यक्ष रह चुके हैं। उन्होंने पुरुषों के बीच समलैंगिक सम्बन्ध के पक्ष में छ: साल तक प्रचार किया] आख़िस्कार लोकतंत्र का ख़ुदा इस हराम को हलाल कर देने पर राज़ी हो गया और जर्मन पार्लियामेंट ने बहुमत से तय कर दिया कि अब यह कर्म अपराध नहीं है, बस शर्त यह है कि दोनों पक्षों की रज़ामंदी से यह काम किया जाए और जिसके साथ यह काम हो उसके नाबालिग होने की शक्ल में उसका वली (सरपरस्त) इस सम्बन्ध को मान्यता देने की रस्म अदा करे।

क़ानून लोकतंत्र रूपी इस ख़ुदा की इबादत में अपेक्षाकृत थोड़ा सुस्त पड़ जाता है। उसके हुक्‍्मों की पाबन्दी करता तो है, मगर सुस्ती और काहिली के साथ करता है। यह कमी जो बन्दगी के पूरा करने में बाक़ी रह गई है, इसे हुकूमत के इन्तिज़ामी कलपुर्ज़े पूरी कर देते हैं। जो लोग इन लोकतांत्रिक हुकूमतों के कारोबार चलाते है, वे क़ानून से पहले उस लिट्रेचर और उन नैतिक दर्शनों का और उन आम रुझानों का असर क़बूल कर लेते हैं जो उनके चारों ओर फैले हुए होते हैं। उनकी मेहरबानी से प्रत्येक वह दुराचरण सरकारी मान्यता... पा लेता है जिसका चलन आम हो गया हो। जो चीज़ें क्रानूनन अभी तक निषिद्ध हैं, उनके मामले में अमली तौर पर पुलिस और अदालरतें क़ानून लागू करने से बचती हैं और इस तरह वे मानो हलाल (बैध) के दर्जे में हो जाती है।

- उदाहरण स्वरूप गर्भपात ही को ले लीजिए जो पश्चिमी क़ानूनों में अब भी हराम (अवैध) है। मगर कोई देश ऐसा नहीं है जहाँ खुल्लम-खुल्ला और-बड़ी संख्या में गर्भपात हो रहा हो। इंग्लैंड में कम-से-कम अन्दाज़े के अनुसार हर ' साल 90 हज़ार गर्भपात कराए जाते हैं| शादीशुदा औरतों में से कम से कम 25 प्रतिशत ऐसी हैं जो या तो स्वयं गर्भपात कर लेती हैं या किसी विशेषज्ञ की मदद लेती हैं। गैर-शादीशुदा औरतों में गर्भपात का अनुपात इससे भी ज़्यादा है। कुछ स्थानों पर तो बाक़ायदा गर्भपात क्लब क्रायम हैं जिनको औरतें साप्ताहिक 'फ़ीस अदा करती हैं, ताकि मौक़ा पेश आने पर एक गर्भपात विशेषज्ञ की सेवाएँ आसानी से प्राप्त हो जाएँ। लन्दम में ऐसे बहुत-से नर्सिंग होम हैं जहाँ ज़्यादातर

56 पर्दा

ऐसी रोगी औरतें होती हैं जिन्होंने गर्भपात कराया होता है।' इसके बावजूद इंग्लैंड के क्नानून की किताब में गर्भपात अभी तक अपराध है।

हक़ीक़तें और गवाहियाँ

अब मैं ज़रा विस्तारपूर्वक बताना चाहता हूँ कि ये तीनों चीज़ें, यानी आधुनिक नैतिक दृष्टिकोण, पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था मिल-जुलकर सामूहिक आचरण और स्त्री-पुरुष के लैंगिक सम्बन्ध को किस प्रकार प्रभावित कर रही हैं और उनसे वास्तव में किस प्रकार के परिणाम सामने आए हैं। चूँकि इस वक़्त तक मैंने ज़्यादातर फ्रांस देश की बात की है, जहाँ से इस आन्दोलन का आरंभ हुआ था, इसलिए मैं सबसे पहले फ्रांस ही को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करूँगा ।' नैतिक चेतना का अभाव

पिछले पन्नों में जिन दृष्टिकोर्णों का ज़िक्र किया जा चुकां है, उनके प्रचार का सबसे पहला असर यह हुआ कि औरत-मर्द के यौन सम्बन्ध के मामले में लोगों का नैतिक एहसास निष्क्रिय होता चला गया। शर्म हया और रैरत दिन-ब-दिन ख़त्म होती चली गई विवाह और व्यभिचार का अन्तर दिलों से निकल गया और व्यभिचार एक ऐसी मासूम (निर्दोष) चीज़ बन गई.जिसे अब कोई ऐब या बुराई का काम समझा है। नहीं जाता कि उसको छिपाने की कोशिश की जाए।

उन्‍्मीसवीं सदी के मध्य, बल्कि अन्त तक सामान्य फ्रांसीसियों के नैतिक दृश्कोण में सिर्फ़ इतनी तब्दीली हुई थी कि मर्दों के लिए व्यभिचार को बिल्कुल एक मामूली, स्वाभाविक चीज़ समझा जाता था। माँ-बाप अपने

« ।. ये विवरण प्रोफ़ेसर जोड (090) ने अपनी किताब 5008 (० ](००था 'ज़ोतस्कारूड में बयान की हैं। (अब भारत की स्थिति भी ऐसी ही हो चुकी है - प्रकाशक) 2. मैंने ज़्यादातर ये जानकारियाँ एक मशहूर फ्रांसीसी समाजशास्त्री पोल ब्यूरो (700 फऋण्णथण) की किताब "0क्नष्घ0 )४०४ छक्ा।वए४०)' से हासिल की हैं जो सन्‌ 925 ई. में लन्दन से छपी है।

पर्दा है 57

ल्‍

नौजवान लड़कों की आवारगी को (बशर्ते कि वह गुप्त रोगों या किसी अदालती कार्रवाई का कारण बन जाए) ख़ुशी से गवारा करते थे, बल्कि अगर वह भौतिक दृष्टि से लाभदायक हो तो उसपर ख़ुश भी होते थे। उनके विचार में किसी मर्द का किसी औरत से विवाह के बिना (यौन) सम्बन्ध रखना कोई ऐब का काम था। ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं कि माँ-बाप ने अपने नौजवान लड़कों पर ख़ुद ज़ोर दिया कि किसी प्रभावशाली या धनी औरत से सम्बन्ध स्थापित करके अपना भविष्य उज्जवल बनाएँ। लेकिन उस समय तक औरत के मामले में दृष्टिकोण इससे बहुत अलग था। औरत का सत्ीत्व (इस्मत) बहरहाल एक क़ीमती चीज़ समझा जाता था। वही माँ-बाप जो अपने लड़के की आवारगी को जबानी की तरंग समझकर गवारा कर लेते थे, अपनी लड़की के दामन पर कोई दाग़ देखना गवारा करते थे। व्यभिचारी पुरुष जिस तरह निर्दोष समझा जाता था, व्यभिचारिणी स्त्री उस तरह निर्दोष समझी जाती थी। पेशावर वेश्याओं का उल्लेख जिस घृणा और अपमान के साथ किया जाता था, उसके पास जानेवाले पुरुष के हिस्से में बह घृणा और अपमान आता था। इसी तरह दाम्पत्य सम्बन्ध में भी स्त्री-पुरुष की नैतिक ज़िम्मेदारी बराबर थी। पति ने अगर किसी के साथ व्यभिचार और कुकर्म किया है तो उसे सहन कर लिया जाता था, लेकिन पत्नी का व्यभिचार या कुकर्म करना एक अत्यन्त घृणित चीज़ समझी जाती थी।

बीसवीं सदी के शुरू तक पहुँचते-पहुँचते यह परिस्थिति बदल गई। औरतों की आज़ादी के आन्दोलन ने औरत और मर्द की नैतिक समानता का: जो सूर फूँका था, उसका असर यह हुआ कि लोग आम तौर पर औरत -के व्यभिचार को भी उसी तरह निष्कलंक समझने लगे जिस तरह भर्द के व्यभिचार को समझते थे और विवाह के बिना किसी मर्द से सम्बन्ध रखना औरत के लिए भी कोई ऐसा कर्म रहा जिससे उसकी शराफ़त और इज़्ज़त पर बड्चा लगता हो। पोल ब्यूरो लिखता है --

“न केवल बढ़े शहरों में, बल्कि फ्रांस के क़स्बों और देहातों तक में अब नौजवान पुरुष इस सिद्धान्त को मानते हैं कि जब हम सच्चरित्र नहीं हैं तो हमें अपनी मंगेतर से भी सच्चरित्रता की माँग करने का

58 परदा

और यह चाहमे का कि वह हमें कुँवारी मिले, कोई हक़ नहीं है। बरगंडी, बोन और दूसरे इलाक़ों में अब यह आम बात है कि एक लड़की शादी से पहले बहुत-सी 'दोस्तियाँ' कर चुकती है और शादी के समय उसे अपनी मंगेतर से अपनी पिछली ज़िंदगी के हालात छिपाने की कोई ज़रूरत नहीं होती। लड़की के क़रीबी रिश्तेदारों में भी उसके दुराचरण पर किसी प्रकार की ना-पसन्दीदगी नहीं पाई जाती। वे उसकी 'दोस्तियों' का उल्लेख आपस में इस तरह बे- तकल्लुफ़ी से करते हैं, मानो किसी खेल या रोज़गार का उल्लेख है और विवाह के अवसर पर दूल्हा साहब, जो अपनी दुल्हन की पिछली ज़िंदगी ही से नहीं, बल्कि उसके उन “दोस्तों! तक से परिचित हैं, जो अब तक उसकी देह से आनन्द लेते रहे हैं, इस बात की पूरी कोशिश करते हैं कि किसी को इस बात का सन्देह तक होने पाए कि उन्हें अपनी दुल्हन के इन कार्मो पर किसी दर्जे में भी कोई आपत्ति है।”'

आगे चलकर लिखता है--

“फ्रांस में मध्यवर्ग के पढ़े-लिखे लोगों में यह स्थिति ज़्यादातर देखी जाती है और अब इसमें पूर्णतः कोई गैर-मामूलीपन नहीं रहा है कि एक अच्छे ख़ानदान की पढ़ी-लिखी लड़की, जो किसी ऑफ़िस या व्यापारिक फ़र्म में एक अच्छी जगह पर काम करती है और सभ्य समाज में उठती-बैठती है, किसी नौजवान से परिचित हो गई और उसके साथ रहने लगी। अब यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं कि वे आपस में शादी कर लें। दोनों शादी के बिना ही एक साथ रहना बेहतर समझते हैं, केवल इसलिए कि दोनों को दिल भर जाने के बाद

अलग हो जाने और कहीं और दिल लगाने की आज़ादी हासिल रहे, ..

* . सोसाइटी में उनका इस तरहं का सम्बन्ध सबको मालूम होता है।

सभ्य लोगों में दोनों मिलकर आते-जाते हैं, वे ख़ुद अपने सम्बन्ध को छिपाते हैं, कोई दूसरा उनकी ऐसी ज़िन्दगी में किसी प्रकार की बुराई महसूस करता है। आरंभ में यह तरीक़ा कारखानों में काम

परदा

करनेवाले लोगों ने शुरू किया था, पहले पहल तो उसे अत्यन्त अश्लील समझा गया, पर अब यह ऊँचे लोगों में आम हो गया है और सामूहिक जीवन में उसने वही स्थान प्राप्त कर लिया है जो कभी विवाह का था।” -+ पृष्ठ 94-96

इस तरह की रखैल को अब विधिवत रूप से स्वीकार किया जाने लगा है। मोस्यो बर्थलेमी (४. 8०0०)७॥५), पेरिस यूनिवर्सिटी में क्रानून का प्रोफ़ेसर, लिखता है कि धीरे-धीरे 'रखैल' को वही क़ानूनी हैसियत प्राप्त होती जा रही है, जो पहले 'पत्नी' की थी। पार्लियामेंट में उसकी चर्चा होने लगी है। सरकार उसके हित की सुरक्षा करने लगी है। एक सिपाही की रखैल को वही गुज़ाया भत्ता दिया जाता है, जो उसकी पत्नी के लिए निर्धारित है। सिपाही अगर मर जाए तो उसकी रखैल को वही पेंशन मिलती है, जो विवाह करके लाई गई पत्नी को मिलती है।

फ्रांसीसी नैतिक मूल्यों में व्यभिचार के निष्कलंक होने की दशा का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि 98 ई. में एक स्कूल की टीचर . ऊुँवारी होने के बावजूद गर्भवती पाई गई। शिक्षा विभाग में कुछ पुराने ख़्याल के लोग भी मौजूद थे, उन्होंने ज़य शोर मचाया। इसपर प्रतिष्ठित लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल शिक्षा-मंत्रालय में हाज़िर हुआ और उसके निम्नलिखित तर्क इतने प्रभावशाली पाए गए कि टीचर का मामला ख़त्म कर दिया गया --

. किसी की निजी ज़िन्दगी से लोगों को क्या मतलब? 2. और फिर उसने आख़िर कौन-सा जुर्म किया है? 3. और क्या विवाह के बिना माँ बनना ज़्यादा लोकतांत्रिक तरीक़ा नहीं है ?

फ्रांसीसी फ़ौज में सिपाहियों को जो शिक्षा दी जाती है उसमें दूसरे ज़रूरी . मसलों के सार्थ-साथ यह भी सिखाया जाता है कि गुप्त रोगों से बचे रहने और गर्भ रोकने के क्‍या उपाय हैं? मानो यह बात तो सर्वमान्य है कि प्रत्येक सिपाही व्यभिचार ज़रूर करेगा। 3 मई 99 ई. को फ्रॉस की 27वीं डिवीज़न के कमांडर ने सिपाहियों के नाम एक एलान प्रकाशित किया था, जिसके शब्द ये है--

50 परदा

“ज्ञात हुआ है कि सैनिक वेश्याओं पर बन्दूक्नचियों की भीड़ के कारण आम सवार और पैदल सैनिकों को शिकायत है। वे शिकायत करते हैं कि बन्दूक़चियों ने इन जगहों पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया है और दूसरों को अवसर ही नहीं देते | हाई कमाँड प्रयास कर रहा है कि औरतों की संख्या में काफ़ी वृद्धि कर दी जाए, परन्तु जब तक यह व्यवस्था नहीं होती, बन्दूक्तचियों को यह आदेश दिया जाता है कि ज़्यादा देर तक अन्दर रहा करें और अपनी इच्छाओं के पूरा करने में ज़रा जल्दी दिखाया करें।

विचार तो कीजिए, यह एलान संसार की सर्वाधिक सभ्य सरकार के सैनिक विभाग की ओर से सरकारी तौर पर प्रकाशित किया जाता है। इसका मतलब यह है कि व्यभिचार के नैतिक रूप से दोषपूर्ण होने का विज्चार तैक इन लोगों के मन-मस्तिष्क में शेष नहीं रहा है। सोसाइटी, क़ानून और सरकार * सबके सब इस विचार से ख़ाली हो चुके हैं।'

महायुद्ध से कुछ समय पहले फ्रांस में एक एजेंसी इस उसूल पर क़ायम की गई कि हर औरत, चाहे वह अपने हालात, माहौल, आर्थिक परिस्थिति और स्वभाव, नैतिकता और आचरण की दृष्टि से कैसी ही हो, बहरहाल 'एक नए तजुर्बे' के लिए राज़ी की जा सकती है। जो साहब किसी औरत से सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हों, वे बस इतना कष्ट उठाएँ कि उन लेडी साहिबा का

. जिस सेना की नैतिक स्थिति यह हो, अनुमान लगाया जा सकता है कि जब वह किसी

दूसरे देश में उसपर विजयी होकर दाख़िल होती होगी, तो उसके सामने हारी हुई क़ौम की इज़्ज़त आबरू पर क्‍या कुछ गुज़र जाती होगी। सेना-सम्बन्धी नैतिकता का एक मानदंड यह है और दूसरा मानदंड वह है जो कुरआन पेश करता है -- “दे वे लोग हैं जिन्हें अगर हम जमीन में सत्ता देते हैं, तो वे नमाज़ क्लायम करते हैं, ज़कात देते हैं, भलाइयों का हुक्म देते हैं और बुराइयों से रोक देते हैं ।'” (कुएआन, 22:47) एक वह सिपाही है जो ज़मीन में सांड बना फिस्ता है और एक यह सिपाही है, जो इसलिए हथेली पर सिर लेकर निकलता है कि मानवीय नैतिकता की सुरक्षा करे और संसार को शुचिता (पाकीज्ञगी) का पाठ पढ़ाए। क्या इंसान इतना अंधा हो गया है कि दोनों का फ़र्क़ नहीं देख सकता ?

परदा 6]

अता-पता बता दें और 25 फ्रांक आरंभिक फ़ीस के तौर पर दाख़िल कर दें। इसके बाद उन साहिबा को मामले पर राज़ी कर लेना एजेंसी का काम है। इस एजेंसी का रजिस्टर देखने से मालूम हुआ कि फ्रेंच सोसाइटी का कोई वर्ग ऐसा था जिसके बहुसंख्य लोगों ने उससे बिज़नेस” किया हो, और यह कारोबार हुकूमत से भी छिपा हुआ था। (पोल ब्यूरो, पृ. 6)

इस नैतिक पतन की चरम स्थिति यह है कि --

“फ्रांस के कुछ ज़िलों में और बड़े शहरों में घी आबादी रखनेवाले हिस्सों में निकटतम सगे-सम्बन्धियों के बीच, यहाँ तक कि बाप और बेटी और भाई और बहन के बीच लैंगिक सम्बन्ध का पाया जाना भी अब कोई दुर्लभ घना नहीं रही हैं।''

अश्लीलता और बेहयाई की वृद्धि

महायुद्ध से पहले मोस्यो ब्यूलो (४. 8000), फ्रांस के अटर्नी जनरल, ने अपनी रिपोर्ट में उन औरतों की संख्या 5 लाख बताई थी जो अपने देह को किराए पर चलाती हैं, परन्तु वहाँ की वेश्यावृत्ति को भारत की पेशेवर वेश्याओं पर अनुमानित कर लीजिए। वह शिष्ट, सभ्य और विकसित देश है। उसके सब काम शिष्टतापूर्ण, संगठित और बड़े पैमाने पर होते (380 बुहाँ इस पेशे में विज्ञापन-कला से पूरा काम लिया जाता है। अख़बार, चित्रकरि, पोस्ट कार्ड, टेलीफ़ोन और निजी दावतनामे, मतलब यह कि सभी सभ्य तरीक़े ग्राहकों का ध्यान आकर्षित कराने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं और जनसाधारण को इसपर कोई आत्मग्लानि नहीं होती। बल्कि इस कारोबार में जिन औरतों को ज़्यादा सफलता” मिल जाती है, वे कभी-कभी देश की राजनीति, कारोबार और बड़े एवं सम्भ्रान्त वर्ग के लोगों में' काफ़ी प्रभावशाली बन जाती हैं, वही “तरब्रक्ती' जो कभी यूनानी संस्कृति में इस वर्ग की औरतों को नसीब हुई थी।

. यह 95 वर्ष पूर्व के फ्रांस की स्थिति है | वर्तमान काल में भारत भी पाश्चात्य देशों की श्रेणी में चुका है। व्यभिचार बलात्कार के संदर्भ में यह बात खुलकर सामने चुकी है कि बहुत-सी घटनाएँ बाप-बेटी, भाई-बहन, चचा-भतीजी, मामा-भांजी आदि ““निकटतम सम्बन्धियों'” के बीच घट रही हैं। (प्रकाशक)

62 परदा

फ्रेंच सिनेट के एक सदस्य मोस्यो फ़र्डिनेंड ड्रीफ़्यू (१. एकबा० 06४४७) ने अब से कुछ साल पहले बयान किया था कि वेश्यावृत्ति का पेशा अब केवल एक व्यक्ति का ज्यक्तिगत काम नहीं रहा है, बल्कि उसकी एजेंसी से जो व्यापक आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं, उनके कारण अब यह एक व्यापार (80शं॥855) और एक संगठित उद्योग (0/एथ॥8९०१ ॥7005079) बन गया है। इसका “कच्चा माल” (२०७ )४४०५४)) मुहैया करनेवाले एजेंट अलग हैं। इसकी बाक़ायदा मंडियाँ मौजूद हैं। जवान लड़कियाँ और कमसिन बच्चियाँ वह तिजारती माल हैं जिसका आयात-निर्यात होता है और दस साल से कम उम्र की लड़कियों की माँग ज़्यादा है।

पोल ब्यूरो लिखता है -

“यह एक ज़बरदस्त व्यवस्था है जो पूरे संगठित तरीक़े से वेतनभोगी पदाधिकारियों और कार्यकर्त्ताओं के सहयोग से चल रहा है। प्रकाशक और लेखक (?0०!०ं४$), भाषणकर्ता और वक्‍ता, विद्यार्थी और नौकरानियाँ (१(0५7४८७) और कारोबारी पर्यटक इसमें बाक़ायदा कर्मचारी हैं और विज्ञापन और प्रदर्शन के आधुनिक तरीक़े इसके लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।''

अश्लील कर्मों के इन अड्डों के अलावा होटलों, चायख़ानों और नाचघरों में एलानिया वेश्यावृत्ति का कारोबार हो रहा है, और कभी-कभी यह पशुता अत्यन्त क्रूरता और निर्ममता की हद तक पहुँच जाती है। सन्‌ 492 ई. में एक बार पूर्वी फ्रांस के एक मेयर (]४४४०/) को हस्तक्षेप करके एक ऐसी लड़की की जान बचानी पड़ी जिसका दिन भर में 47 ग्राहकों से पाला पड़ चुका था और अभी बहुत-से ग्राहक तैयार खड़े थे।

कारोबारी वेश्यालयों के अलावा 'ख़ैराती' (निशुल्क) वेश्यालयों की एक नई क्रिस्म पैदा करने का श्रेय महायुद्ध को मिला। लड़ाई के ज़माने .में जिन देशभक्त महिलाओं ने फ्रांस की धरती की सुरक्षा करनेवाले बहादुरों की 'सेवा' की थी और जिनको इस 'सेवा' के बदले में बिन-बाप के बच्चे मिल गए थे, उन्हें ''४७-(004-)/00॥27४” होने का सम्मान मिल गया--यह एक ऐसी

परदा 63

अछूती कल्पना है कि हमारी भाषा इसका अनुवाद करने में असमर्थ है--ये महिलाएं संगठित रूप में वेश्यावृत्ति करने लगीं और उनकी सहायता” करना काले धंधे करनेवालों के लिए एक नैतिक कार्य बन गया। बड़े-बड़े दैनिक

* समाचारपत्रों और ख़ास तौर से फ्रांस के दो मशहूर सचित्र पत्रिकाओं “फंतासियो' (797॥980) और 'लावी पोरेज़ियाँ' (8४० एक्पंअंशा॥6) ने उनकी ओर “कामी पुरुर्षो' का ध्यान आकर्षित करने की सेवा सबसे बढ़कर अंजाम दी सन्‌ 97 ई. के शुरू में 'लावी पारेज़ियाँ' नामक समाचारपत्र का एक अंक इन औरतों के 99 विज्ञापनों पर आधारित था।

वासना और अश्लीलता की महामारी

अश्लीलता की यह अधिकता और लोकप्रियता काम-भावनाओं की जिस उत्तेजना का परिणाम है, वह लिट्रेचर, तस्वीरें, सिनेमा, थिएटर, नाच, नग्नता और अश्लीलता के आम दृश्यों से प्रकट होती है।

स्वार्थी पूँजीपतियों की एक पूरी फ़ौज है जो हर संभव उपाय से जनता की 'काम-वासना की प्यास को भड़काने में लगी हुई है और इस ज़रीए से अपने कारोबार को बढ़ा रही है। दैनिक और साप्ताहिक अख़बार, सचित्र पत्रिकाएँ, अर्धमासिक और मासिक पत्रिकाएँ अत्यंत अश्लील लेख और शर्मनाक तस्वीरें | छापते हैं, क्योंकि ग्राहक-संख्या बढ़ाने का यह सर्वाधिक प्रभावकारी साधन है। इस काम में आला दर्जे का ज़ेहन, कला और मनोविज्ञान की महारत इस्तेमाल की जाती है, ताकि शिकार किसी ओर से बचकर जा सके | इनके अलावा लैंगिक समस्याओं पर अत्यन्त अश्लील साहित्य पम्फ़लेटों और किताबों के रूप में निकलता रहता है, जिनके प्रकाशन की अधिकता का हाल यह है कि एक-एक संस्करण पचास-पचास हज़ार की संख्या में छपता है और कभी-कभी साठ-साठ संस्करणों तक नौबत पहुँच जाती है।

कुछ पब्लिशिंग हाउस तो सिर्फ़ इसी साहित्य के लिए ख़ास हैं। बहुत-से लेखक ऐसे हैं जो इसी माध्यम से लोकप्रियता प्राप्त करते हैं। अब किसी अश्लील पुस्तक का लिखना किसी के लिए बे-इज़्ज़ती नहीं है, बल्कि यदि पुस्तक लोकप्रिय हो जाए, तो ऐसे लेखकगण फ्रेंच अकादमी के सदस्य या कम

64 परदा

से कम क्रोए दान्योर (४०४ ॥)णा7८ए) के हक़दार हो जाते हैं।

सरकार इन सभी निर्लज्जतापूर्ण और कामोत्तेजक चीज़ों को ठंढे दिल से देखती रहती है। कभी कोई बहुत ही ज़्यादा शर्मनाक चीज़ छप गई तो पुलिस ने अनचाहे मन से चालान कर दिया, परन्तु ऊपर उदार हृदय अदालर्तें बैठी हैं जिनके इंसाफ़ के दरबार से इस प्रकार के अपराधियों को केवल डाँट-डपटकर छोड़ दिया जाता है। क्योंकि जो लोग अदालत की कुर्सियों पर विराजमान होते - हैं उनमें से ज़्यादातर इस लिट्रेचर से आनंद लेते रहते हैं और अदालत के कुछ ज़िम्मेदारों की अपनी क़लम वासनापूर्ण अश्लील साहित्य के लेखन में लगी रहती है। संयोग से अगंर कोई मजिस्ट्रेट पुराने ख़्याल' का निकल आया और उससे अन्याय का डर हुआ तो बड़े-बड़े साहित्यकार और नामवर लेखक 'एकमत होकर इस मामले में हस्तक्षेप करते हैं और ज़ोर-शोर से अख़बारों में लिखा जाता है कि आर्ट और लिट्रेचर की तरक़क्नी के लिए स्वतंत्र वातावरण चाहिए। अंधकार युग की सी मानसिकता के साथ नैतिक पाबन्दियाँ लगाने का . मतलब तो यह है कि ललित कलाओं का गला घोंटदिया जाए।

और यह ललित कलाओं की तरक़्क़ी होती किस-किस तरह है? उसमें एक बड़ा हिस्सा उन नग्न और व्यावहारिक चित्रों का है जिनके अलबम लाखों की संख्या में तैयार किये जाते हैं, और सिर्फ़ बाज़ारों, होटलों और चायख़ानों में, बल्कि स्कूलों और कॉलेजों तक में फैलाए जाते हैं। एमील पोरीसी (गप्री5 ए०ण्प४ं5१) ने अश्लीलता-विरोधी संस्था की दूसरी आम सभा में जो रिपोर्ट पेश की है, उसमें वह लिखता है-

“ये गन्दे फ़ोटोग्राफ़ लोगों की इन्द्रियों में तीव्र उत्तेजना और उन्माद पैदा करते हैं और अपने बद-क्विस्मत ख़रीदारों को ऐसे-ऐसे अपराधों पर उकसाते हैं जिनकी कल्पना से ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं। लड़कों और लड़कियों पर उनका घातक प्रभाव बयान की सीमा से परे है। बहुत-से स्कूल और कॉलेज इन्हीं के कारण नैतिक और शारीरिक रूप से बर्बाद हो चुके हैं। ख़ास तौर पर लड़कियों के लिए तो कोई चीज़ इससे ज़्यादा तबाही फैलानेवाली नहीं हो सकती।””

फ्दा ढ्ठ

और इन्हीं ललित कलाओं की सेवा थिएटर, सिनेमा, म्यूजिक हॉल और कॉफ़ी हाउसों के मनोरंजनों से हो रही है। नाटक, जिनके अभिनय को फ्रेंच सोसाइटी के ऊँचे-से-ऊँचे घराने दिलचस्पी के साथ देखते हैं और जिनके लेखकों और सफल अभिनेताओं -अभिनेत्रियों पर मुबारकबाद के फूल निछाबर 'किए जाते हैं, बिना किसी अपवाद के सब-के-सब वासना से भरे हैं और उनकी विशेषता बस यह है कि नैतिक रूप से जो चरित्र निकृष्टटम हो सकता है उसको उनमें आदर्श और नमूने की चीज़ बनाकर पेश क़िया जाता है। पोल ब्यूरो के अनुसार-- न्‍

“'तीस-चालीस साल से हमारे नाटककार ज़िंदगी के जो नक़्शे पेश

कर रहे हैं, उनको देखकर अगर कोई व्यक्ति हमारे सामाजिक जीवन

का अन्दाज़ा लगाना चाहे, तो वह बस यहं समझेगा कि हमारी

सोसाइटी में जितने शादीशुदा जोड़े हैं सब विश्वासघाती और दाम्पत्य

जीवन की बफ़ादारी से वंचित हैं। पति या तो मूर्ख होता है या पत्नी

की जान के लिए मुसीबत, और पत्नी की सबसे अच्छी ख़ूबी अगर

कोई है तो वह यह कि हर समय पति से उसका मन उचाट रहे और

इधर-उधर दिल लगाने के लिए तैयार रहे। *

ऊँची सोसाइटी के थिएटरों का जब यह हाल है तो आम लोगों के थिएटरों और मनोरंजन-स्थलों का जो कुछ रंग होगा उसका अन्दाज़ा आसानी से किया जा सकता है। आवारा प्रवृत्ति के निकृष्ट लोग जिस भाषा, जिन अदाओं और जिन नंगी चीज़ों से संतुष्ट हो सकते हैं, वे बिना किसी शर्म हया और लाग- 'लपेट के वहाँ पेश कर दी जाती हैं और आम जनता को विज्ञापनों के माध्यम से यह यक़ीन दिलाया जाता है कि तुम्हारी वासना की प्यास जो-जो कुछ माँगती है, वह सब यहाँ हाज़िर है-- 'हमारा स्टेज हिचकिचाहट और संकोच से परे और वास्तविकता पर आधारित (२८४॥६४०) है।'

एमील पोरीसी ने अपनी रिपोर्ट में बहुत-से उदाहरण प्रस्तुत किए हैं जो विभिन्‍न मनोरंजन-स्थलों का भ्रमण करके जमा की गई थीं। नामों को उसने वर्णमाला के अक्षरों के परदे में छिपा दिया है --

66 फरदा

“ब में अभिनेत्री (ऐक्ट्रेस) के गीत, बातचीत (१४०॥००४०९७) और ऐक्टिंग और हरकतें हद दर्जा अश्लील थीं और परदे पर जो बैकग्राउंड पेश किया गया था, वह बस यौन-सम्बन्ध की आख़िरी सीमा तक पहुँचते-पहुँचते रह गया था। एक हज़ार से ज़्यादा तमाशाई मौजूद थे, जिनमें सज्जन भी दिखाई पड़ रहे थे और सभी बदमस्त होकर तारीफ़े कर रहे थे।”

“न में छोटे-छोटे गीत और उनके दर्मियान छोटे-छोटे बोल और उनके साथ अदाएँ और ऐक्टिंग बेशर्मी की इंतिहा को पहुँची हुई थीं। बच्चे और कमसिन नौजवान अपने माँ-बाप के साथ बैठे हुए इस तमाशे को देख रहे थे और पूरे जोश और उमंग के साथ प्रत्येक निकृष्ट अश्लीलता पर तालियाँ बजाते थे।''

“ल में उपस्थित लोगों की भीड़ ने पाँच बार शोर मचाकर एक ऐसी अभिनेत्री को ऐक्ट दोहराने पर मजबूर किया जो अपने ऐक्ट को एक अत्यन्त अश्लील गीत पर ख़त्म करती थी।”

*' में उपस्थित लोगों ने ऐसी ही एक और अभिनेत्री से बार-बार फ़रमाइश करके एक अत्यन्त अश्लील चीज़ की पुनरावृत्ति कराई, आख़िर उसने बिगड़ कर कहा, “तुम कितने बेशर्म लोग हो, देखते नहीं हो कि हॉल में बच्चे भी मौजूद हैं।--- यह कहकर वह ऐक्ट पूरा किए बगैर हट गई। चीज़ इतनी अश्लील थी कि वह आदी मुजरिमा भी इस बात को सहन नहीं कर सकती थी कि उस अश्लील हरकत की दोहराए।””

“ज़ में तमाशा ख़त्म होने के बाद अभिनेत्रियों (ऐक्ट्रेसों) पर लॉटरी डाली गई। लॉट्री के टिकट ख़ुद अभिनेत्रियाँ दस-दस सानेतम' में बेच रही थीं। जिस आदमी के नाम जो अभिनेत्री निकल आती, वह उस रात के लिए उस की थी।”

4. एक सिक्‍्का।

- पर्दा

67

पॉल ब्योरो लिखता है कि कभी-कभी स्टेज पर बिल्कुल नंगी औरतें तक पेश कर दी जाती हैं, जिनके जिस्म पर कघड़े के नाम का एक तार भी नहीं होता। अडोल्फ़ ब्रेसाँ (8009॥6 8748०॥) ने एक बार फ्रांस के मशहूर अख़बार 'टाम! (४999) में इन चीज़ों का विरोध करते हुए लिखा कि अब बस इतनी कसर रह गई है कि स्टेज पर औरत-मर्द के संभोग कांदृश्य प्रस्तुत कर दिया जाए, और सच यह है कि आर्ट की पूर्णाहूति ((कमील) भी उसी « समय होगी!

गर्भनिरोधक आंदोलन और कामशास्त्र (5७८०७ 8०००८) के तथाकथित ज्ञानपरक और चिकित्सा सम्बन्धी साहित्य ने भी अश्लीलता फैलाने और लोगों के चरित्र बिगाड़ने में बड़ा हिस्सा लिया है। जन-सभाओं में भाषणों और मैजिक लैंटर्न के द्वारा और पुस्तकों में चित्रों व्याख्याओं के द्वारा गर्भ और उससे सम्बद्ध चीज़ें और गर्भनिरोधक उपकरणों के इस्तेमाल के तरीक़े को इतने विस्तार से बताया जाता है जिनके बाद कोई चीज़ स्पष्ट करने के लिए बाक़ी नहीं रह जाती। इसी तरह कामशास्त्र की पुस्तकों में देह की व्याख्या से लेकर आख़िर तक सेक्स-सम्बन्धी मामलों के किसी पहलू को भी रौशनी में लाए कौर नहीं छोड़ा जाता देखने में तो इन सब चीज़ों पर ज्ञान और साइंस का ग्रिलाफ़ चढ़ा दिया गया है, ताकि ये आरोप-मुक्त हो जाएँ। बल्कि. और अधिक तरक़क़ी करके इन चीज़ों के फैलाव को 'जन-सेवा' का नाम दे दिया जाता है और वजह यह बताई जाती है कि हम तो लोगों को सेक्स के मामलों में ग़लतियाँ करने से बचाना चाहते हैं, मगर वास्तविकता यह है कि इस लिट्रेचर और इस शिक्षा के प्रचार ने औरतों, मर्दों और कमसिन नौजवानों में ज़बरदस्त बेहयाई पैदा कर दी है। इसकी वजह से आज ग्रह नौबत गई है कि एक नव-युवती, जो स्कूल में तालीम पाती है और अभी पूरी तरह बालिग़ (वयस्क) भी नहीं हुई है, सेक्स के मामलों में ऐसी जानकारियाँ रखती है जो कुछ शादीशुदा औरतों को भी मालूम नहीं। और यही हाल नव-युवक, बल्कि नाबालिग़ लड़कों का भी है। उनकी भावनाएँ वक़्त से पहले जाग जाती हैं। उनमें सेक्स के तजुर्बों का शौक़ पैदा हो जाता है। पूरी जवानी को पहुँचने से पहले ही वे अपने आपको. काम-वासनाओं के चंगुल में दे देते हैं। विवाह के

68 परदा

लिए तो उम्र की हद मुक़॒रर की गई है, मगर इन तजुपनों के लिए कोई हद मुक़र्रर नहीं, बारह-तेरह साल की उम्र ही से इनका सिलसिला शुरू हो जाता है।'

क़ौमी तबाही की निशानियाँ

दुराचार, भोग-विलासिता और शारीरिक आनन्द की दास॒ता इस सीमा को पहुँच चुकी हो जहाँ औरत, मर्द, जवान, बूढ़े, सब के सब ऐशपरस्ती में इतने डूब गए हों और जहाँ इंसान को तीद्र कामोत्तेजना ने यूँ आपे से ताहर कर दिया हो, ऐसी जगह उन सारे कारणों का क्रियान्वित हो जांना बिल्कुल. एक स्वाभाविक बात है, जो किसी क़ौम की तबाही के कारक होते हैं। लोग इसी प्रकार की गिरावट की शिकार क़्ौमों को तरक़क़नी की चोटी पर पहुँची हुई देखकर यह नतीजा निकालते हैं कि उनकी ऐशपरस्ती उनकी तरक़क़ी में रुकावट नहीं है, बल्कि उल्टी मददगार है और यह कि एक क़ौम की इन्तिहाई तरक़्क़ी और बलन्दी का ज़माना वह होता है, जब वह भोग-विलासिता के चरम शिखर पर होती है। लेकिन यह एक सरासर ग़लत नतीजा निकालना है, जहाँ बनाव और बिगाड़ की ताक्तें मिली-जुली काम कर रही हों और समष्टीय रूप से बनाव और निर्माण का पहलू नुमायाँ नज़र आता हो, वहाँ बिगाड़ की ताक़तों को भी समान रूप से निर्माण के कारकों में गिन लेना सिर्फ़ उस आदमी का काम हो सकता है जिसकी अक़्ल मारी गई हो। *

मिसाल के तौर पर अगर एक होशियार व्यापारी अपनी बुद्धि, मेहनत और अनुभव की बजह से लाखों रुपये कमा रहा है और उसके साथ बह शराब, जुआ और ऐशपरंस्ती में लिप्त हो गया है तो आप कितनी बड़ी ग़लती करेंगे अगर उसकी ज़िंदगी के इन दोनों पहलुओं को उस ख़ुशहाली और तरक्की के कारकों में गिन लेंगे। असल में उसकी ख़ूबियों का पहला समूह उसके बनाव,

» अत्यंत 'सभ्य' और उननत' देशों के स्कूलों के सर्वेक्षण से सामने आए आँकड़ों के अनुसार, 20वीं सदी के अंत तक, हाई स्कूल स्तर की बहुसंख्य बालिकाएँ यौन-क्रिया का अनुभव कर चुकी होती हैं। गर्भनिरेधक साधनों के बावजूद उनमें से कुछ गर्भवती भी हो जाती हैं। फिर गर्भपात का व्यापक प्रावधान उन्हें इस मुसीबत से नजात दिलाता

है। , (प्रकाशक)

. परदा 69

की वजह है और दूसरा समूह उसके बिगाड़ में लगा हुआ है। पहले समूह की ताक़त से अगर इमारत क़ायम है तो इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरे समूह की बिगाड़वाली ताक़त अपना असर नहीं कर रही है। ज़रा गहरी नज़र से देखिए तो पता चलेगा कि ये बिगाड़ पैदा करनेवाली ताक़तें उसके दिमाग़ और जिस्म की ताक़तों को निरन्तर खाए जा रही हैं, उसकी मेहनत से कमाई हुई दौलत पर डाका डाल रही हैं और उसको क्रमश: तबाह करने के साथ हर वक़्त इस ताक में लगी हुई हैं कि कब एक निर्णायक हमले का मौक़ा मिले और ये एक ही वार में उसका ख़ात्मा कर दें। जुए का शैतान किसी बुरी घड़ी में उसकी उम्र भर की कमाई को एक सेकेंड में ग़ारत कर सकता है और वह उस घड़ी के इंतिज़ार में बैठा है। मद्यपान (शराबनोशी) का शैतान समय आने पर उससे मदहोशी की हालत में एक ग़लती करा सकता है, जो एक ही झटके में उसे दीवालिया बनाकर छोड़ दे, और वह भी घात में लगा हुआ है। दुराचार (बदकारी) का शैतान भी उस घड़ी का इन्तिज़ार कर रहा है, जब वह उसे क़त्ल या आत्महत्या या किसी और अचानक तबाही में डाल दे। आप अन्दाज़ा नहीं कर सकते कि अगर वह इन शैतानों के चंगुल में फँसा हुआ होता तो उसकी तरक्की का क्या हाल होता। हि

ऐसा ही मामला एक क़ौम का भी है। वह तामीरी ताक़तों के बल पर तरक़क़ी करती है, मगर सही रहनुमाई मिलने की वजह से तरक़क़ी की तरफ़ कुछ ही क़दम बढ़ाने के बाद ख़ुद अपने बिगाड़ के सामान जुटाने लगती है। कुछ मुद्दत तक तामीरी ताक़तें अपने ज़ोर में उसे आगे बढ़ाए लिए जाती हैं, मगर उसके साथ-साथ विघटनकारी ताक़तें उसकी ज़िंदगी की ताक़त को अन्दर-ही- अन्दर घुन की तरह खाती रहती हैं, यहाँ तक कि अन्ततः उसे इतना खोखला करके रख देती हैं कि एक अचानक सदमा उसके बड़प्पन के महल को आन- की-आन में धराशायी कर सकता है। यहाँ संक्षिप्त रूप में हम तबाही के उन बड़े-बड़े मुख्य कारणों को बयान करेंगे जो फ्रांसीसी क़ौम की उस त्रुटिपूर्ण सामाजिक व्यवस्था ने उसके लिए पैदा किए है।

70 पु परदा

शारीरिक शक्तियों की गिरावट

काम-वासना के इस वर्चस्व का पहला नतीजा या हुआ है कि फ्रांसीसियों की शारीरिक शक्ति धीरे-धीरे जवाब देती चली जा रही है। हर समय भड़कती रहनेवाली भावनाओं ने उनकी इन्द्रियों को कमज़ोर कर दिया है| इच्छाओं की दासता ने उनमें संयम और सहनशक्ति कम ही बाक़ी छोड़ी है और गुप्त रोगों की अधिकता ने उनकी सेहत पर अत्यन्त घातक असर डाला है। बीसवीं सदी के शुरू से यह हाल है कि फ्रांस की फ़ौज के अधिकारियों को मजबूर होकर हर कुछ साल के बाद नये रंगरूटों के लिए शारीरिक योग्यता के पैमाने को घटा देना पड़ता है, क्योंकि योग्यता का जो स्तर पहले था, अब उस पैमाने के नौजवान क़ौम में कम से कमतर होते जा रहे हैं।

यह एक विश्वसनीय पैमाना है जो थरमामीटर की तरह क़रीब-क़रीब शुद्ध रूप में बताता है कि फ्रेंच क्रीम की शारीरिक शक्तियाँ कितनी तेज़ी के साथ क्रमश: घट रही हैं। गुप्त रोग इस गिरावट के कारणों में से एक अहम कारण हैं। महायुद्ध के आरंभिक दो सालों में जिन सिपाहियों को सिर्फ़ आतशक की वजह से छुट्टी देकर अस्पतालों में भेजना पड़ा उनकी संख्या 75000 थी। सिर्फ़ एक औसत दर्जे की फ़ौजी छावनी में एक ही वक़्त में 242 सिपाही इस रोग के शिकार हुए।

एक ओर उस वक़्त की नज़ाकत देखिए कि फ्रांसीसी क्रीम की मौत और ज़िंदगी का फ़ैसला सामने था और उसके अस्तित्त्वत के लिए एक-एक सिपाही को जान लड़ा देने की ज़रूरत थी, एक-एक फ्रांक क्रीमती था और वक़्त, ताक़त, साधन हर चीज़ की ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा रक्षा में ख़र्च होने की ज़रूरत थी। दूसरी ओर उस क़ौम के जवानों को देखिए कि कितने हज़ार लोग इस ऐयाशी की वजह से सिर्फ़ कई-कई महीनों के लिए बेकार हुए, बल्कि उन्होंने अपनी क़्ौम की दौलत और साधनों को भी उस आड़े वक़्त में अपने इलाज पर बरबाद कराया।

एक फ्रांसीसी अनुभवी चिकित्सक लेरीड (9. ॥.9700०) का बयान है कि फ्रांस में हर साल सिर्फ़ आतशक और उससे उत्पन्न रोगों की वजह से 30

परदा है या

हज़ार जानें तबाह होती हैं, और टी. बी. के बाद यह रोग सबसे ज़्यादा तबाहियों की वजह होता है। यह सिर्फ़ एक गुप्त रोग का हाल है, और गुप्त रोगों की सूची केवल इसी एक रोग पर आधारित नहीं है!

पारिवारिक व्यवस्था की बर्बादी

इस स्वच्छंद काम-वासना और आवारापन के इस आम रिवाज ने दूसरी बड़ी मुसीबत जो फ्रांसीसी सामाजिक व्यवस्था पर डाली है, वह पारिवारिक व्यवस्था की तबाही है। परिवार की व्यवस्था औरत और मर्द के उस स्थायी और मज़बूत ताल्लुक़ से बनती है जिसका नाम निकाह (विवाह) है। इसी ताल्लुक़ की वजह से व्यक्तियों की ज़िंदगी में सुकून, ठहराव और मज़बूती पैदा होती है। यही चीज़ उनके व्यक्तिक जीवन को सामूहिक जीवन में तब्दील करती है और बिखराव (8॥27०॥9) के रुझानों को दबाकर उन्हें संस्कृति का सेवक बना देती है। इसी व्यवस्था के दायरे में मुहब्बत, अम्न और त्याग का वह पाकीज़ा माहौल पैदा होता है जिसमें नयी नस्‍्लें सही अख़्लाक़, सही उठान और चरित्र-निर्माण के साथ पल-बढ़ सकती हैं। लेकिन जहाँ औरतों और मर्दों के ज़ेहन से विवाह और उसके मक़सद का विचार बिल्कुल ही निकल गया हो और जहाँ सेक्‍स के ताल्‍लुक़ का कोई मक़सद वासना की आग बुझा लेने के सिवा लोगों के ज़ेहन में हो और जहाँ मौज-मस्ती के रसिया मर्दों और औरतों के जत्थे का जत्था भौरों की तरह फूल-फूल का रस लेते फिरते हों, वहाँ यह व्यवस्था क़ायम हो सकती है, क्रायम रह सकती है। वहाँ औरतों और मर्दों में यह क्षमता ही बाक़ी नहीं रहती कि दाम्पत्य जीवन की ज़िम्मेदारियाँ और उसके अधिकार और कर्त्तव्य और उसके अख़लाक़ी बन्धनों का बोझ सहार सकें। उनकी इस ज़ेहनी और अख़लाक़ी स्थिति का असर यह होता है कि हर नस्ल की तर्बियत पहली नस्ल से बदतर होती है। व्यक्तियों में स्वार्थ और

« सूज्ञाक और आतशक जैसे पुराने गुप्त रोगों के अतिरिक्त वर्तमान काल को एड्स! (५४09) जैसे ख़ौफ़नाक और घातक मर्ज़ का सामना है | इसके निदान के उपायों में से सबसे प्रसिद्ध उपाय यह बताया जाता है कि (व्यभिचार बदकारी चाहे जितनी कीजिए लेकिन सावधानी और सतर्कता बरतते हुए) 'कण्डोम' का उपयोग करना चाहिए |

(प्रकाशक)

प2 परदा

मनमानी इतनी बढ़ जाती है कि नागरिकता की व्यवस्था छिनन-भिन्‍न होने लगती है। लोगों में अनेक रंगी अस्थिरता इतनी बढ़ जाती है कि क़ौमी सियासत और उसके अन्तर्राष्ट्रीय रवैये में भी कोई ठहराव बाक़ी नहीं रहता। घर का सुकून मिलने की वजह से व्यक्तियों की ज़िदगियाँ बहुत ज़्यादा कड़ी होती जाती हैं और एक स्थायी बेचैनी उनको किसी कल चैन नहीं लेने देती। यह हुनिया की जहन्नम का अज़ाब है जिसे इनसान अपनी मूर्खतापूर्ण आनन्द- प्राप्ति के जुनून में ख़ुद मोल लेता है।

फ्रांस में सालाना केवल सात-आठ ग्रति हज़ार का औसत उन मर्दों और औरतों का है जो पति-पत्नी के रिश्ते में जुड़ते हैं। यह औसत ख़ुद इतना कम है कि इसे देखकर आसानी के साथ अन्दाज़ा किया जा सकता है कि आबादी का कितना बड़ा हिस्सा गैर-शादीशुदा है। फिर इतनी थोड़ी तादाद जो विवाह करती है, उसमें भी बहुत कम लोग ऐसे हैं जो पाकदामन रहने और पाक अख़लाक़ी ज़िंदगी गुज़ारने की नीयत से विवाह करते हैं। इस एक उद्देश्य के सिवा हर दूसरा संभव उद्देश्य उनकी नज़रों में होता है, यंहाँ तक कि सामान्य घटित उद्देश्यों में से एक यह भी है कि विवाह से पहले एक औरत ने जो बच्चा नाजायज़ तौर पर जना है, विवाह कर के उसको जायज़ बच्चा बना दिया जाए। अतः पॉल (००0) ब्यूरो लिखता है कि --

“फ्रांस के कामपेशा लोगों (सणाताए (85४९४) में यह आम रिवाज है कि विवाह से पहले औरत अपने होनेवाले शौहर से इस बात का वादा ले लेती है कि वह उसके बच्चे को अपना बच्चा स्वीकार करेगा। सन्‌ 97 ई. में सेन (8॥27०) की दीवानी अदालत के सामने एक औरत ने बयान दिया कि मैंने शादी के वक़्त ही अपने शौहर को यह बात बता दी थी कि इस शादी से मेरा उद्देश्य सिर्फ़ यह है कि हमारे विवाह से पहले आज़ादाना ताल्लुक़ात से जो बच्चे पैदा हुए हैं, उनको वैध' बना दिया जाए। बाक़ी रही यह बात कि मैं उसके साथ बीवी बनकर जिंदगी गुज़ारूँ, तो यहं उस समय मेरे ज़ेहन में थी, अब है। इसी वजह से जिस दिन शादी हुई उसी दिन साढ़े पाँच बजे मैं अपने शौहर से अलग हो गई और आज तक

पर्दा 2

उससे नहीं मिली, क्योंकि मैं बीबी की ज़िम्मेदारी निभाने की कोई नीयत रखती थी।” -+ (पृष्ठ 55)

पेरिस के एक मशहूर कॉलेज के प्रिंसिपल ने ब्यूरो से बयान किया कि --

“आमतौर से नौजवान विवाह में सिर्फ़ यह उद्देश्य निगाहों में रखते हैं कि घर पर भी एक रखैल की सेवाएँ हासिल कर लें। दस-बारह साल तक वे हर ओर आज़ादाना मज़े चखते फिरते हैं। फिर एक समय आता है कि इस प्रकार की बे-ढंगी आवारा ज़िंदगी से थककर वे एक औरत से शादी कर लेते हैं, ताकि घर का आराम भी किसी हद तक मिले और आज़ादी के साथ ज़ौक़ पूरा करने का आनन्द भी मिलता रहे ।”” (पृष्ठ 56)

“फ्रांस में शादीशुदा लागों का व्यभिचारी होना क़तई तौर पर कोई ऐब या निन्‍्दनीय कर्म नहीं है। अगर कोई व्यक्ति अपनी बीवी के अलावा कोई स्थायी रखैल रखता है तो वह उसे छिपाने की ज़रूरत नहीं समझता और समाज इस काम को बिल्कुल एक साधारण और व्यावहारिक संभावित बात समझता है।'” -- (पृष्ठ 76-77)

इन हालात में विवाह का रिश्ता इतना कमज़ोर होकर रह गया है कि बात- बात में टूट जाता है। कभी-कभी इस बेचारे की उम्र कुछ घन्टों से आगे नहीं बढ़ पाती। अतएब फ्रांस के एक ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति ने, जो कई बार मंत्री रह चुका था, अपनी शादी से सिर्फ़ पॉच घंटे के बाद अपनी बीबी से तलाक़ हासिल कर ली। ऐसी छोटी-छोटी बातें तलाक़ का कारण बन जाती हैं जिन्हें सुनकर हँसी आती है। जैसे, दोनों में से किसी एक का सोते में ख़र्यटे लेना या कुत्ते को पसन्द करना। सेन की दीवानी अदालत ने एक बार सिर्फ़ एक तारीख़ में 294 विवाह निरस्त कराए। सन्‌ 844 ई. में जब तलाक़ का नया क़ानून पास हुआ था, चार हज़ार तलाक़ों की घटना हुई थी। सन्‌ 900 ई. में यह संख्या साढ़े सात हज़ार तक पहुँची। सन्‌ 93 ई. में 6 हज़ार और सन्‌ 93व ई. में 2 हज़ार।

. 74 परदा

नस्ल-हत्या

बच्चों की परवरिश एक ऊँचे दर्ज का अख़लाक़ी काम है जो आत्म संयम, इच्छाओं का त्याग, कष्टों और परिश्रमों का सहन और जान माल का बलिदान चाहता है। स्वार्थी नफ़्लपरस्त लोग, जिनपर वैयक्तिकता और पाशविकता का पूरा प्रभुत्त हो चुका हो, इस ख़िदमत को अंजाम देने के लिए 'किसी तरह राज़ी नहीं हो सकते।

साठ-सत्तर वर्ष से फ्रांस में गर्भ-रोधक आन्दोलन का ज़बरदस्त प्रचार हो रहा है। इस आन्दोलन की बजह से फ्रांस की धरती के एक-एक मर्द और एक- एक औरत तक को उन उपायों की जानकारी करा दी गई है जिनसे आदमी इस क़ाबिल हो सकता है कि यौत-सम्बन्ध और उसकी लज़्ज़तों और सुखों का उपभोग करने के बावजूद इस काम के स्वाभाविक परिणाम, यानी गर्भ धारण करने और नस्ल की वृद्धि, से बच सके। कोई शहर, क़स्बा या गाँव ऐसा नहीं है जहाँ गर्भ-निरोधक दवाएँ और उपकरण खुलेआम बिकते हों और हर व्यक्ति उनको हासिल कर सकता हो। इसका नतीजा यह है कि स्वतन्त्र यौनाचार करनेवाले लोग ही नहीं, बल्कि शादीशुदा जोड़े भी ज़्यादा से ज़्यादा इन उपायों को इस्तेमाल करते हैं और हर औरत मर्द की यह ख़ाहिश है कि उनके बीच बच्चा, यानी वह बला जो तमाम आनन्द सुख को किरकिरा कर देती है, किसी तरह बाधा डालने पाए। फ्रांस की जन्म-दर जिस रफ़्तार से घट रही है उसको देखकर विशेषज्ञों ने अन्दाज़ा लगाया है कि गर्भ-निरोधक इस आम वबबा की वजह से कम से कम 6 लाख इंसानों की पैदाइश हर साल रोक दी जाती है।

इन उपायों के बावजूद जो गर्भ ठहर जाते हैं उनको गर्भपात के द्वारा बर्बाद कर दिया जाता है और इस तरह, और भी तीन-चार लाख इंसान दुनिया में आने से रोक दिए जाते हैं। गर्भपात सिर्फ़ ग़ैर-शादीशुदा औरतें ही नहीं करातीं, बल्कि शादीशुदा भी इस मामले में उनके समकक्ष हैं। नैतिक रूप से इस काम को एतिराज़ के क्राबिल नहीं समझा जाता, बल्कि औरत का हक़ समझा जाता है। क़ानून ने इसकी ओर से मानो आँखें बंद कर ली हैं। यद्यपि क़ानून की किताब में यह काम अभी तक अपराध है, लेकिन व्यावहारिक रूप से हाल यह

परदा हि

है कि 300 में से मुश्किल से एक के चालान की नौबत आती है और फिर जिनका चालान होता है उनमें से 75 प्रतिशत अदालत में जाकर छूट जाते हैं। गर्भपात के डॉक्टी उबाय इतने आसान और जनता में इतने जाने-पहचाने कर दिए गए हैं कि अक्सर औरतें ख़ुद ही गर्भपात कर लेती हैं और जो नहीं कर सकर्ती उन्हें डाक्टरी मदद हासिल करने में कोई परेशानी नहीं होती। पेट के बच्चे को क़त्ल कर देना उन लोगों के लिए बिल्कुल ऐसा हो गया है, जैसे किसी दर्द करनेवाले दाँत को निकलवा देना |

इस मानसिकता ने माँ की फ़ितरत को इतना तोड़-मरोड़ दिया है कि वह माँ, जिसकी मुहब्बत को दुनिया हमेशा से मुहब्बत की सबसे ऊँची मंज़िल समझती रही है, आज अपनी औलाद से विकश्षुब्ध (बेज़ार) और नफ़रत करनेवाली ही नहीं, बल्कि बह उसकी दुश्मन हो गई है। गर्भ-नेरोधक और गर्भपात से बच-बचाकर भी जो बच्चे दुनिया में जाते हैं, उनके साथ अत्यन्त निर्दयता का व्यवहार किया जाता है। इस दर्दनाक हक़ीक़त को पॉल ब्यूरो ने इन शब्दों में बयान किया है -

“नित्य प्रति अख़ंबारों में उन बच्चों की मुसीबतों की ख़बरें छपती रहती हैं जिनपर उनके माँ-बाप सख़्त से सख्त जुल्म ढाते हैं। अख़बाएं में तो सिर्फ़ असाधारण बातों ही का ज़िक्र आता है, मगर लोग जानते हैं कि आमतौर से इन बच्चों - अनचाहे मेहमानों - के साथ कैसी निर्दयता का व्यवहार किया जाता है, जिनसे उनके माँ- बाप सिर्फ़ इसलिए दुखी हैं कि इन कमबदख़्तों ने आकर ज़िंदगी का सारा मज़ा ख़राब कर दिया। साहस की कमी गर्भपात में रुकावट बन जाती है और इस तरह इन मासूमों को आने का मौक़ा मिल जाता है। मगर जब ये जाते हैं। तो उन्हें इसकी पूरी सज़ा भुगतनी पड़ती है।' (पृष्ठ 74) “यह विरक्ति और नफ़रत यहाँ तक पहुँचती है कि एक बार एक औरत का छ: माह का बच्चा मर गया तो वह उसकी लाश को सामने रखकर ख़ुशी के मारे नाची और गाई और अपने पड़ोसियों से कहती फिरी कि अब हम दूसरा बच्चा होने देंगे। मुझे और मेरे

76 फ्र्दा

शौहर को इस बच्चे की मौत से बड़ी शान्ति मिली है। देखो तो सही, एक बच्चा क्या चीज़ होता है। हर वक़्त रों-रों करता रहता है, गन्दगी फैलाता है और आदमी को कभी उससे छुटकारा नसीब नहीं होता। (पृष्ठ 75)

इससे भी ज़्यादा दर्दनाक बात यह है कि बच्चों को क़त्ल करने की वबा तेज़ी के साथ बढ़ रही है और फ्रांसीसी सरकार और उसकी अदालतें गर्भपात की तरह इस भारी जुर्म के मामले में भी कमाल दर्ज की ग़फ़लत बरत रही हैं। जैसे फ़रवरी सन्‌ 98 ई. में लायर (४०) की अदालत में दो लड़कियाँ अपने बच्चों के क़त्ल के इलज़ाम में पेश हुईं और दोनों बरी कर दी गईं। इनमें से एक लड़की ने अपने बच्चे को पानी में डुबोकर हलाक किया था। उसके एक बच्चे को उसके रिश्तेदार पहले से पाल-पोस रहे थे और इस दूसरे बच्चे को भी वे पालने के लिए तैयार थे, मगर उसने फिर भी यही फ़ैसला किया कि इस बेचारे को जीता छोड़े। अदालत की राय में उसका जुर्म माफ़ कर दिए जाने के काबिल था।

दूसरी लड़की ने अपने बच्चे को गला घोंटकर मारा और जब गला घोंटने पर भी उसमें कुछ जान बाक़ी रह गई तो दीवार पर मारकर उसका सिर फोड़ दिया। यह औरत भी फ्रांसीसी जजों और ज्यूरी की निगाह में सज़ा की हक़दार ठहरी। »

इसी 98 ई. के मार्च महीने में सेन की अदालत ,के सामने एक नाचनेवाली औरत पेश हुई जिसने अपने बच्चे की ज़बान हलक़ से खींचने की कोशिश की। फिर उसका सिर फोड़ा और उसका गला काट डाला | यह औरत भी जज और ज्यूरी, किसी की राय में मुजरिम थी।

» जो क्ौम अपनी नस्ल की दुश्मनी में इस हद को पहुँच जाए उसे दुनिया का कोई उपाय मिटने से नहीं बचा सकता। नई नस्‍्लों की पैदाइश एक क़ौम के अस्तित्त्व का क्रम जारी रखने के लिए ज़रूरी है। अगर कोई क्रोम अपनी नस्ल की दुश्मन है तो वास्तव में वह अपनी आप दुश्मन है, आत्महत्या कर रही है। कोई बाहरी दुश्मन हो, तब भी वह आप अपनी हस्ती को मिट देने के लिए

पर्दा पा

काफ़ी है। जैसा कि पहले बयान कर चुका हूँ, फ्रांस की जन्म-दर पिछले साठ साल से बराबर गिरती जा रही है। किसी साल मृत्यु-दर, जन्म-दर से बढ़ जाती है, किसी साल दोनों बराबर रहती हैं और कभी जन्म-दर मृत्यु-दर की अपेक्षा मुश्किल से एक प्रति हज़ार ज़्यादा होती है।

दूसरी ओर फ्रांस की धरती पर गैर-क्रौमों के मुहाजिरों की तादाद हर दिन बढ़ रही है। अतएब 93 ई. में फ्रांस की 4 करोड़ 8 लाख की आबादी में 28 लाख 90 हज़ार ग़ैर-क्ौमों के लोग थे। यही स्थिति अगर यूँ ही जारी रही तो बीसवीं सदी के अन्त तक फ्रांसीसी क्रौम आश्चर्य नहीं कि ख़ुद अपने वतन में अल्प संख्यक बनकर रह जाए।

यह अंजाम है उन दृष्टिकोणों का जिनके आधार पर औरतों की आज़ादी और नारी-अधिकार का आन्दोलन उननीसर्वी सदी के शुरू में उठाया गया था।

78: परदा

अध्याय-5

कुछ और मिसालें

हमने मात्र ऐतिहासिक विवरण का क्रम जारी रखने के लिए फ्रांस के दृष्टिकोणों और फ्रांस ही के परिणामों का वर्णन किया है, लेकिन यह सोचना सही होगा कि फ्रांस इस मामले में अकेला है। वास्तव में आज उन तमाम देशों का कम बेश यही हाल है जिन्होंने वे नैतिक दृष्टिकोण और सामाजिकता के वे असंतुलित सिद्धान्त अपनाए हैं, जिनका ज़िक्र पिछले पन्नों में किया गया है। मिसाल के तौर पर अमरीका को लीजिए जहाँ यह सामाजिक व्यवस्था इस समय अपनी पूरी उठान पर है।

बच्चों पर वासनात्मक माहौल का असर

न्यायाधीश बेन लिंडसे (8थ॥ .705८9), जिसे डिनवर (0थाए्थ) की बच्चों के आपराधिक मामलों की अदालत (॥एए०॥४|।& 0०0) का ग्रेसीडेंट होने की हैसियत से अमरीका के नौजवानों की नैतिक हालत को जानने का बहुत ज़्यादा मौक़ा मिला है, अपनी किताब (२०४०६ ]श०0०ग र०णा) में लिखता है कि अमरीका में बच्चे समय से पहले ही बालिग होने लगे हैं और बहुत कच्ची उम्र में उनके अन्दर यौनानुभूति जागृत होने लगती हैं। उसने नमूने के तौर पर 32 लड़कियों के हालात की जाँच की तो मालूम हुआ कि उनमें से 255 ऐसी थीं जो ग्यारह और तेरह वर्ष की दर्मियानी उम्र में बालिग हो चुकी थीं और उनके भीतर ऐसी वासनात्मक इच्छाएँ और ऐसी शारीरिक माँगों के चिहन पाए जाते थे जो एक 8 वर्ष और इससे भी ज़्यादा उम्र की लड़की में होने चाहिएँ। (पृष्ठ 82-86)

डॉक्टर एडिथ हॉकर (9. 800 प्रक्वण:2) अपनी किताब “4४४० $७४” में लिखता है कि -

“अत्यन्त सुसभ्य और धनी वर्गों में भी यह कोई असाधारण बात नहीं है कि सात-आठ वर्ष की लड़कियाँ अपने हमउम्र लड़कों से

फ़्दा हु 79

से कम उम्र वाली लड़कियों के साथ यौन-क्रिया की गई थी।

इश्क़ मुहब्बत के सम्बन्ध रखती हैं, जिनके साथ कभी-कभी संभोग भी हो जाता है।

उसका बयान है-

“एक सात वर्ष की छोटी-सी लड़की जो एक अत्यन्त भद्र (शरीफ़) परिवार की आँखों का तारा थी, ख़ुद अपने बड़े भाई और उसके कुछ दोस्तों के साथ यौनाचार में लिप्त हुई--एक दूसरी घटना यह है कि पाँच बच्चों का एक गिरोह, जिसमें दो लड़कियाँ और तीन लड़के थे और जिनके घर पास-पास ही थे, परस्पर यौन सम्बन्धों में लिप्त पाए गए और उन्होंने दूसरे हमउम्र बच्चों को भी इसपर उभारा। इनमें सबसे बड़े बच्चे की उम्र सिर्फ़ दस साल की थी --- एक और घटना एक नौ साल की बच्ची की है, जो ज़ाहिर में बड़ी हिफ़ाज़त से रखी जाती थी, वह बच्चीं कई “आशिक्रों' की मंज़ूरे-नज़र बनने का सौभाग्य प्राप्त कर चुकी थी।”” (पृष्ठ 328)

बालटीमोर (8#त7००७) के एक डॉक्टर की रिपोर्ट है कि एक साल के अन्दर उसके शहर में एक हज़ार से ज़्यादा ऐसे मुक़द्दमे पेश हुए जिनमें बारह वर्ष

यह पहला फल है उस वासना भड़कानेवाले माहौल का जिसमें हर

(पृष्ठ 77)

ओर

भावनाओं को उभारनेवाले सामान उपलब्ध हो गए हों। अमरीका का एक लेखक लिखता है कि -

“हमारी आबादी का अधिकतर हिस्सा आजकल जिन हालात में ज़िंदगी बिता रहा है, वे इतने अप्राकृतिक हैं कि लड़के और लड़कियों को दस-पन्द्रह वर्ष की उम्र ही में यह ख़याल पैदा हो जाता है कि वे एक-दूसरे के साथ इश्क़ रखते हैं। इसका नतीजा बहुत ही अफ़सोसनाक है। इस प्रकार की समय-पूर्व बासनात्मक अभिरुचियों से बहुत बुरे नतीजे निकल सकते हैं, और निकला करते हैं। इनका कम से कम नतीजा यह है कि कम-उम्र लड़कियाँ अपने दोस्तों के साथ भाग जाती हैं या छोटी उम्र में शादियाँ कर लेती हैं, और अगर

80

परदा ,

मुहब्बत में नाकामी का मुँह देखना पड़ता है तो आत्महत्या कर लेती हैं।' पु

शिक्षा का दौर

इस तरह जिन बच्चों में समय से पहले सेक्‍स की भावना जाग जाती है, उनके लिए पहला प्रयोग-स्थल स्कूल हैं। स्कूल दो प्रकार के होते हैं] एक में सिर्फ़ लड़के या लड़कियाँ पढ़ती हैं। दूसरे प्रकार के स्कूलों में दोनों की पढ़ाई एक साथ होती है।

पहले प्रकार के स्कूलों में समलैंगिकता (पघणा०-$०४08॥५) और हस्तमैथुन (१(७४४॥४४४॥०॥) की महामारी फैल रही है। क्योंकि जिन भावनाओं को बचपन ही में भड़काया जा चुका है और जिनको उत्तेजित करने के सामान वातावरण में हर ओर फैले हुए हैं, वे अपनी तृप्ति के लिए कोई कोई शक्ल निकालने पर मजबूर हैं | डॉक्टर हॉकर लिखता है कि -

“इस तरह के स्कूलों, कॉलेजों, नर्सों के ट्रेनिंग स्कूलों और धार्मिक

पाठशालाओं में हमेशा इस प्रकार की घटनाएँ सामने आती रहती हैं,

जिनमें एक ही सेक्स - मर्द या औरत - के दो व्यक्ति आपस में

वासनात्मक सम्बन्ध रखते हैं और विपरीत-लिंग से उनकी

दिलचस्पी समाप्त हो चुकी होती है।'” (पृष्ठ 33)

इस सिलसिले में उसने बहुत-सी घटनाएँ ऐसी बयान की हैं जिनमें लड़कियाँ लड़कियों के साथ और लड़के लड़कों के साथ लिप्त हुए और दर्दनाक अंजाम को पहुँचे।

कुछ दूसरी किताबों से भी मालूम होता है कि यह समलैंगिक संभोग” की महामारी कितनी व्यापक रूप में फैली हुई है। डॉक्टर लोरी (9. [0979) अपनी किताब प्ल॒७६९ में लिखता है -

“एक बार एक स्कूल के हेड मास्टर ने चालीस परिवारों को गुप्त

सूचना दी कि उनके लड़के अब स्कूल में नहीं रखे जा सकते,

क्योंकि उनमें चरित्रहीनता की एक भयानक हालत का पता चला

है। (पृष्ठ 79)

परदा 8

अब दूसरे प्रकार के स्कूलों को लीजिए जिनमें लड़के और लड़कियाँ साथ मिलकर पढ़ते हैं| यहाँ उत्तेजना के कारण भी मौजूद हैं और उसको तृप्त करने की सामग्री भी। जिस कामोत्तेजना की शुरुआत बचपन में हुई थी, यहाँ पहुँचकर बह पूरी हो जाती है। बदतरीन अश्लील साहित्य नौजवान लड़कों और लड़कियों के अध्ययन में रहता है। उत्तेजक प्रेम कहानियाँ, तथाकथित आर्ट के मैग्ज़ीन, यौन समस्याओं पर बहुत गन्दी किताबें और गर्भ-निरोधक जानकारियों को जुटानेवाले लेख, ये हैं वे चीज़ें जो जवानी में स्कूलों और कॉलेजों के छात्र-छात्राओं के लिए सबसे ज़्यादा आकर्षक होती हैं। प्रसिद्ध अमरीकन लेखक हेंडरिच फ़ान लून (पथाकांण एग्वा ,0ण) कहता है कि -

“यह लिट्रेचर, जिसकी सबसे ज़्यादा माँग अमरीकी यूनिवर्सिटियों में

है, गन्दगी, अश्लीलता और बेहूदगी का सबसे बुरा संकलन है, जो

किसी ज़माने में इतनी आज़ादी के साथ पब्लिक में पेश नहीं किया

गया। इस लिट्रेवर से जो जानकारियाँ मिलती हैं, दोनों लिंगों के

जवान व्यक्ति इनपर बड़ी आज़ादी और निर्भीकता से बहसें करते हैं

और इसके बाद व्यावहारिक प्रयोगों की ओर क़दम बढ़ाया जाता है।

लड़के और लड़कियाँ मिलकर 7८४४8 ?४०7०४ के लिए निकलते

हैं, जिनमें शराब और सिगरेट का इस्तेमाल ख़ूब आज़ादी से होता है

और नाच-रंग से पूरा आनन्द उठाया जाता है। (पछ०छ]0था

02० श्व720, ?. 72)

लिंडसे का अन्दाज़ा है कि हाई स्कूल की कम से कम 45 प्रतिशत लड़कियाँ स्कूल छोड़ने से पहले ख़राब हो चुकती हैं और बाद की क्लासों में औसत इससे बहुत ज़्यादा है! वह लिखता है -

“हाई स्कूल का लड़का हाई स्कूल की लड़की के मुक़ाबले में

भावनाओं की तीव्रता में बहुत पीछे रह जाता है। आम तौर पर

लड़की ही किसी किसी तरह पेशक्रदमी करती है और लड़का

उसके इशारों परं नाचता है।

82 परदा

तीन

शक्तिशाली उत्प्रेरक

स्कूल और कॉलेज में फिर भी एक प्रकार का डिसिप्लिन होता है जो +* किसी हद तक अमल की आज़ादी में रुकावट पैदा कर देता है। लेकिन ये नौजवान जब स्कूलों और कॉलेजों से उत्तेजित भावनाएँ और बिगड़ी हुई आदर्ते लिए हुए ज़िंदगी के मैदान में क़दम रखते हैं तो उनका उपद्रव तमाम सीमाओं और रुकाव्ों से आज़ाद हो जाता है। यहाँ उनकी भावनाओं को भड़काने के लिए एक पूरी आग-की भट्ठी मौजूद होती है और उनकी भड़कती हुई भावनाओं की तृप्ति के लिए हर प्रकार का सामान भी किसी परेशानी के बिना जुटा दिया

जाता है।

एक अमरीकी मैग्ज़ीन में इन कारणों को, जिनकी वजह से वहाँ अनैतिकता

का असाधारण प्रचार हो रहा है, इस तरह बयान किया गया है -

“तीन शैतानी शक्तियाँ हैं जिनकी त्रिभुजा आज हमारी दुनिया पर छा गई है, और ये तीनों एक जहन्नम तैयार करने में व्यस्त हैं। अश्लील साहित्य, जो महायुद्ध के बाद से आश्चर्यजनक गति के साथ अपनी बेशर्मी और प्रकाशन-बाहुल्‍य में बढ़ता चला जा रहा है। गतिशील तस्वीरें, जो वासनात्मक प्रेम की भावनाओं को केवल भड़काती हैं बल्कि व्यावहारिक शिक्षा भी देती हैं। औरतों का गिरा हुआ नैतिक स्तर, जो उनके पहनावे और कभी-कभी उनकी नग्नता और सिग्रेट के बढ़ते इस्तेमाल और मर्दों के साथ उनके सारे प्रतिबन्धों और मर्यादाओं से मुक्त मेल-जोल की शक्ल में ज़ाहिर होता है। ये तीन चीज़ें हमारे यहाँ बढ़ती चली जा रही हैं। और इनका नतीजा मसीही सभ्यता और सामाजिक मूल्यों की गिरावट और आखिरकार तबाही है। अगर इनको रोका गया, तो हमारा इतिहास भी रोम और उन दूसरी क्रौमों जैसा होगा जिनको यही नफ़्सपरस्ती और मौजमस्ती, उनकी शराब और औरतों और नाच- रंग सहित, विनाश के घाट उतार चुका है। *

ये तीन कारण, जो संस्कृति और सामाजिकता की पूरी फ़िज़ा पर छाए हुए

पर्दा

83

हैं, हर उस जवान मर्द और जवान औरत की भावनाओं में एक स्थायी हलचल पैदा करते रहते हैं जिसके जिस्म में थोड़ा-सा भी गर्म ख़ून मौजूद है। अश्लीलताओं की बाढ़ इस हलचल का अवश्यम्भावी परिणाम है। ;

अश्लीलता का बाहुल्‍य

अमरीका में जिन औरतों ने व्यभिचार को स्थायी पेशा बना लिया है, उनकी संख्या का कम से कम अन्दाज़ा चार-पाँच लाख के बीच है।' परन्तु अमरीका की वेश्या को भारत की वेश्या के समतुल्य मत सोचिए। वह ख़ानदानी वेश्या नहीं है, बल्कि वह एक ऐसी औरत है जो कल तक कोई आज़ाद पेशा करती थी, बुरी संगति में ख़ताब हो गई और वेश्यालय में बैठी | कुछ साल यहाँ गुज़ारेगी। फिर इस काम को छोड़कर किसी दफ़्तर या कारखाने में नौकर हो जाएगी | जाँच से मालूम हुआ है कि अमरीका की 50 प्रतिशत वेश्याएँ घरेलू नौकरानियों (00॥स्‍65४76 $0शएथ्था8) में से भरती होती हैं और बाक़ी 50 प्रतिशत अस्पतालों, दफ़्तरों और दुकानों की नौकरियाँ छोड़कर आती हैं। आम तौर से पन्द्रह और बीस साल की उम्र में यह पेशा शुरू किया जाता है और पचीस-तीस साल की.उम्र को पहुँचने के बाद वह औरत जो कल वेश्या थी, वेश्यालय से निकलकर किसी दूसरे आज़ाद पेशे में चली जाती है। इससे अन्दाज़ा किया जा सकता है कि अमरीका में चार-पाँच लाख वेश्याओं की मौजूदगी की वास्तविकता का क्या अर्थ है।

जैसा कि पिछले पन्नों में कहा जा चुका है, पश्चिमी देशों में वेश्यावृत्ति एक संगठित अन्तर्राष्ट्रीय कारोबार की हैसियत रखती है। अमरीका में न्यूयार्क, रियो-डि-जेनरो और ब्यूनोस आयर्स इस कारोबार की बड़ी मंडियाँ हैं। न्यूयार्क की दो सबसे बड़ी 'तिजारती कोठियों' में से हर एक की एक-एक प्रशासनिक परिषद्‌ (80ागरएं॥7॥९७ 0०णाआं) है, जिसके अध्यक्ष और सिक्रेट्री बाक़ायदा चुने जाते हैं। हर एक ने क़ानूनी सलाहकार निर्धारित कर रखे हैं, ताकि किसी अदालती मुक़्द्दमें में फैंस जाने पर उनके हित की हिफ़ाज़त करें।

4. अर्थात 06 ए8१ 8825, ?. 38-39 2. शण्षथाणाणा ॥6 (तर26 80825, ?, 64-69

84 परदा

जवान लड़कियों को बहकाने और उड़ाकर लाने के लिए हज़ारों दलाल मुक़़रर हैं, जो हर जगह शिकार की खोज में फिरते रहते हैं। इन शिकारियों की छीन- झपट का अन्दाज़ा इससे किया जा सकता है कि शिकागो में आनेवाले मुहाजिरों की लीग के प्रेसीडेंट ने एक बार 5 महीने के आंकड़े जमा किए थे तो मालूम हुआ कि इस मुद्दत में 7200 लड़कियों के पत्र लीग के दफ़्तर को मिले, जिनमें लिखा था कि वे शिकागो पहुँचनेवाली हैं, मगर उनमें से सिर्फ़ 7700 अपनी मंज़िल को पहुँच सकी | शेष का कुछ पता नहीं चल सका कि कहाँ गईं।

वेश्यालयों के अलाबा बहुत-से मुलाक़ात ख़ाने (85800 सि0ए४8८$) और 09 घ्ठप५०5 हैं, जो इस मक़सद के लिए सुसज्जित रखे जाते हैं कि 'सज्जन' लोग और औरतें जब आपस में मुलाक़ात करना चाहें तो वहाँ , उनकी मुलाक़ात का इंतिज़ाम कर दिया जाए। जाँच से मालूम हुआ कि एक शहर में ऐसे 78 मकान थे, एक दूसरे शहर में 43, एक और शहर में 33॥' इन मकानों में सिर्फ़ अबिवाहित औरतें ही नहीं जाती, बल्कि बहुत-सी विवाहित औरतों का भी वहाँ गुज़र होता रहता है।*

एक प्रसिद्ध समाज-सुधारक का बयान है कि -

“'न्यूयार्क की शादीशुदा आबादी का पूरा एक तिहाई हिस्सा ऐसा है

जो नैतिक और शारीरिक हैसियत से अपने दाम्पत्य कर्तव्यों में

उफ़ादार नहीं है, और न्यूयार्क की हालत देश के दूसरे भागों से कुछ

ज़्यादा भिन्‍न नहीं।

अमरीका के नैतिकता-सुधारकों की एक समिति “(छरगरांप6 [००(८थ/” के नाम से मशहूर है। इस समिति की ओर से अनैतिकता के केन्द्रों की खोज और देश की नैतिक स्थिति की जाँच और नैतिक सुधार के व्यावहारिक उपायों का काम बड़े पैमामे पर किया जाता है। इसकी रिपोर्टों में बताया गया है कि अमरीका के जितने नाच घर, नाइट क्लब, ब्यूटी सैलून्स

]. छक्क्पीणाणा 06 ए्रा०त 5च्ा5, 7. 38 2. शण्भ्राणांणा 06 एा॥0७0 8865, 7. 36 3. मध्ाधछ 6

फ़्दा हि कु पर 85

(86479 $8]0075), हाथों को सुन्दर बनाने की डुकानें ([/व्ाांटएणाल 9008) मालिशघर (७५५५४० २०००७) और बाल सँवारने की दुकानें (प्रथा ])०9॥89) हैं, क़रीब-क़रीब सब बाक़ायदा वेश्यालय बन चुके हैं, बल्कि उनसे भी बुरे, क्योंकि वहाँ ऐसे गन्दे काम किए जाते हैं जिनको बयान करना मुमकिन नहीं।' गुप्त रोग

अश्लीलता की इस ज़्यादती का अनिवार्य परिणाम यह हुआ है कि बड़ी तादाद में लोग गुप्त रोगों का शिकार हो गए हैं। अन्दाज़ा किया गया है कि अमरीका की क़रीब-क़्तरीब 90 प्रतिशत आबादी इन रोगों से प्रभावित है। इंसाइक्लोपीडिया ब्रियनिका भाग 25, पृ. 45 से मालूम होता है कि वहाँ के सरकारी दवाख़ानों में औसत रूप से हर साल आतशक (59709) के दो लाख और सूज्ञाक (90707॥0०8) के एक लाख 60 हज़ार रोगियों का इलाज किया जाता है। 65 दवाख़ाने सिर्फ़ इन्हीं रोगों के लिए ख़ास हैं, मगर सरकारी दवाख़ानों से ज़्यादा प्राइवेट सलाहकार डॉक्टरों से लोग सम्पर्क करते हैं। इनके पास आतशक के 6 प्रतिशत और सूज़ाक के 89 प्रतिशत रोगी जाते हैं।

'तीस और चालीस हज़ार के. दर्मियान बच्चों की मौतें सिर्फ़ आनुवंशिक (नस्ली) आतशक की वजह से होती हैं। टी. बी. के सिवा बाक़ी तमाम रोगों से जितनी मौर्ते होती हैं, उनमें सबसे अधिक संख्या उन मौतों की है जो सिर्फ़ आतशक की वजह से होती हैं.। सूज़ाक के मुताल्लिक़ माहिरों का कम से कम अन्दाज़ा है कि 60 प्रतिशत जवान व्यक्ति इस रोग में गिरफ़्तार हैं, जिनमें शादीशुदा भी हैं और गैर शादीशुदा भी। स्त्रीरोग-विशेषज्ञों का सामूहिक बयान *है कि शादीशुदा औरतों के गुप्तांगों के जितने आपरेशन किए जाते हैं, उनमें से 75 प्रतिशत ऐसे निकलते हैं ,जनमें सूज़ाक का असर पाया जाता है। |

. 20वीं सदी की अंतिम चौथाई और 2]वीं सदी के आरंभ में ऐसे केन्द्र, सैलून और डुकानें भारत में भी प्रचलित हो चुकी हैं....विशेषत: महानगरों में जहाँ से नारी- उद्धार', 'नारी-स्वतंत्रता', 'नारी-अधिकार' तथा नारी-उननति' के आन्दोलनों के स्रोत॑ फूटते हैं। (प्रकाशक)

2. ॥.395 07 585, ९. 204

86 पर्दा

तलाक़ और जुदाई

ऐसे में ज़ाहिर है कि पारिवारिक व्यवस्था और पवित्र दाम्पत्य सम्बन्ध की कायम रह सकता है! आज़ादी के साथ अपनी रोज़ी कमानेवाली औरतें जिनको वासनात्मक आवश्यकताओं के सिवा अपनी ज़िंदगी के किसी विंभाग में भी मर्द की ज़रूरत नहीं है और जिनको शादी के बिना आसानी से मर्द भी मिल सकते हैं, शादी को एक निरर्थक चीज़ समझती हैं। आधुनिक दर्शन और |भौतिकवादी दृष्टिकोणों ने उनके भीतर से यह एहसास भी दूर कर दिया है कि शादी के बिना किसी आदमी से ताल्लुक़ात रखना कोई ऐब या गुनाह लक को भी इस माहौल ने ऐसा चेतनाहीन बना दिया है कि वह ऐसी को घृणा का पात्र या निन्दनीय नहीं समझता |

जज लिंडसे अमरीका की आम लड़कियों के विचारों को इन शब्दों में ज़ाहिर करती है -

“मै शादी क्यों करूँ? मेरे साथ की जिन लड़कियों ने पिछले दो सालों। में शादियाँ की हैं, हर दस्त में से पाँच की शादी का अंजाम तलाक़ पर्‌ हुआ। मैं समझती हूँ कि इस ज़माने की हर लड़की मुहब्बत के मामले में अमल की आज़ादी का फ़ितरी हक़ रखती है। मुझे गर्भ-निरोधक के बहुत-से उपाय मालूम हैं। इसके द्वारा यह ख़तरा भी दूर किया जा सकता है कि एक हरामी (अवैध) बच्चे का जन्म कोई उलझन की स्थिति उत्पन्न कर देगा। मुझे विश्वास है कि परंपरागत तरीक़ों को इस आधुनिक तरीक़े से बदल देना अक़्ल का तक़ाज़ा है।'”

इन धारणाओं से ग्रस्त निर्लज्ज औरतों को अगर कोई चीज़ शादी पर सहमत करती है तो वह सिर्फ़ प्रेम-भावना है। लेकिन अधिकतंर यह भावना भी दिल और रूह की गहराई में नहीं होती, बल्कि सिर्फ़ एक क्षणिक आकर्षण का नतीजा होती है। इच्छाओं का नशा उतर जाने के बाद दम्पत्ति में कोई प्रेम- भावना शेष नहीं रहती। प्रवृत्ति और स्वभाव का मामूली-सा अन्तर उनके बीच नफ़रत पैदा कर देंता है। अन्तत: अदालत में तलाक़ या जुदाई ($्कशन्वांगा)

परका हा

का दावा पेश हो जाता है। लिंडसे लिखता है -

“सन 922 ई. में डेनवर में हर शादी के साथ एक घटना जुदाई की घटित हुई और दो शादियों के मुक़ाबले में एक मुक़द्दमा तलाक़ का पेश हुआ। यह हालत सिर्फ़ डेनवर ही की नहीं है। अमरीका के लगभग सारे शहरों की क़रीब-क़रीब यही हालत है।””

फिर लिखता है -

“तलाक़ और जुदाई की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं और अगर यही हालत रही, जैसी कि उम्मीद है, तो शायद देश के अधिकतर भागों में जितने शादी के लाइसेंस दिए जाएँगे, उतमे ही तलाक़ के मुक़द्दमे पेश होंगे।'”!

डेटराय (0970) के अख़बार 'फ्री प्रेस' में इन हालात पर एक लेख छपा था, जिसका एक पैरा यह है -

“विवाहों की कमी, तलाक़ों की ज़्याददी और विवाह के बिना स्थायी या अस्थायी अवैध सम्बन्धों की वृद्धि, यह अर्थ रखती है कि हम पशुता की ओर वापस जा रहे हैं। बच्चे पैदा करने की फ़ितरी ख़ाहिश मिट रही है, पैदाशुदा बच्चों से गफ़लत बरती जा रही है और इस बात का एहसास ख़त्म हो रहा है कि परिवार और घर का निर्माण, संस्कृति और स्वतंत्र सत्ता के अस्तित्व के लिए ज़रूरी है। इसके विपरीत संस्कृति एवं सत्ता के परिणाम से एक निर्मम उदासीनता पैदा हो रही है।””

तलाक़ और जुदाई की इस बहुलता का निवारण अब यह निकाला गया है कि (007995& 0०788 )/७7792० यानी आज़माइशी विवाह” को रिवाज दिया जाए। मगर यह इलाज असल रोग से भी बुरा है। आज़माइशी विवाह का अर्थ यह है कि मर्द और औरत पुराने फ़ैशन की शादी” किए बिना कुछ दिनों

. २९४०६ 0 ]४०096व॥ा ४णण॥, ९. 2[-4

88 पर्दा

तक आपस में मिलकर रहें। अगर इस साथ रहने में दिल से दिल मिल जाते हैं तो शादी कर लें, बस्ना दोनों अलग होकर कहीं और क़िस्मत आज़माएँ] आज़माइश के दिनों में दोनों को औलाद पैदा कंरने से परहेज़ करना अनिवार्य है, क्योंकि बच्चे की पैदाइश के बाद उनको बाक़ायदा विवाह करना पड़ेगा। यह वही चीज़ है जिसका नाम रूस में आज़ाद मुहब्बत (7९० ,0४९) है।'

राष्ट्रीय आत्महत्या

मनेच्छाओं की दासता, दाम्पत्य कर्त्तव्य पालन से नफ़रत, पारिवारिक जीवन से उदासीनता और दाम्पत्य सम्बन्धों की नापाएदारी ने औरत की उस स्वाभाविक मातृत्त्व-भावना को क़रीब-क़रीब ख़त्म कर दिया है जो औरतों की भावनाओं में सबसे ज़्यादा प्रतिष्ठित और उच्च आत्मिक भावना है और जिसके बाक़ी रहने पर सिर्फ़ सभ्यता और संस्कृति, बल्कि मानवता का बाक़ी रहना निर्भर है। गर्भनिरोध, गर्भपात और भ्रूणहत्या इसी भावना की मौत से पैदा हुए हैं। गर्भनिरोध की जानकारियाँ, हर प्रकार की क़ानूनी पाबन्दियों के बावजूद, अमरीका के हर जवान लड़की और लड़के को हासिल हैं। गर्भनिरोधक दवाएँ और उपकरण भी आज़ादी के साथ दुकानों पर बिकते हैं। आम आज़ाद औरतें तो दूर की बात, स्कूलों और कॉलेजों की लड़कियाँ भी इस सामान को हमेशा अपने पास रखती हैं, ताकि अगर उनका दोस्त संयोग से अपना सामान भूल आए तो एक आनन्द भरी शाम बेकार होने पाए।

जज लिंडसे लिखता है -

“हाई स्कूल की कम उम्रवाली 495 लड़कियाँ, जिन्होंने ख़ुद मुझसे इक़रार किया कि उनको लड़कों से यौनाचार का तजुर्बा हो चुका है, उनमें सिर्फ़ 25 ऐसी थीं जिनको गर्भ ठहर गया था। बाक़ी में से, कुछ तो संयोग से ब्रच गई थीं, लेकिन अधिकतर को गर्भरोधक उपायों की काफ़ी जानकारी थी। यह जानकारी उनमें इंतनी आम हो चुकी है कि.लोगों को इसका सही अन्दाज़ा नहीं है।'”

. और अब 'सहवासी-संबंध' (ए८-धा-२९०४णा) (प्रकाशक)

प्रदा 89

कुँवारी लड़कियाँ इन उपायों को इसलिए इस्तेमाल करती हैं कि उनकी आज़ादी में फर्क आए। शादीशुदा औरतें इसलिए उनसे लाभ उठाती हैं कि बच्चे के जन्म से सिर्फ़ उनपर पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का बोझ पड़ जाता है, बल्कि शौहरों को तलाक़ देने की आज़ादी में भी बाधा उत्पन्न हो जाती है। और तमाम औरतें इसलिए माँ बनने से नफ़रत करने लगी हैं कि ज़िंदगी का पूरा-पूरा आनन्द उठाने के लिए उनको इस जंजाल से बचने की ज़रूरत है, साथ ही इसलिए भी कि उनके विचार में बच्चे जनने से उनके सौन्दर्य में फर्क जाता है।'

बहरहाल कारण चाहे कुछ भी हों, औरत मर्द के 95 प्रतिशत ताल्लुक़ात ऐसे हैं जिनसे इस ताल्लुक़ के फ़ितरी नतीजे को गर्भनिरोधक के उपायों द्वारा रोक दिया जाता है। बाक़ी बची पाँच प्रतिशत घटनाएँ, जिनमें संयोगवश गर्भ ठहर जाता है, उनके लिए गर्भपात और भ्रूणहत्या के उपाय मौजूद हैं। जज लिंडसे का बयान है कि अमरीका में हर साल कम से कम 5 लाख गर्भपात कराए जाते हैं और हज़ारों बच्चे पैदा होते ही क़त्ल कर दिए जाते हैं। (पृष्ठ: 220) इंग्लैंड की हालत

मैं इन चिन्ताजनक विवरणों को ज़्यादा विस्तार नहीं देना चाहता, मगर उचित नहीं है कि बहस के इस हिस्से को जार्ज रायली स्काट की किताब 4 पांज्रण श०॥एफंण के कुछ हिस्से उद्धृत किए बिना ख़त्म कर दिया जाए] इस किताब का लेखक एक अंग्रेज़ है और उसने ज़्यादातर अपने ही देश की नैतिक स्थिति का नक़्शा इन शब्दों में खींचा है -

““जिन औरतों के गुज़र-बसर का एक मात्र साधन यही है कि अंपने शरीर को किराये पर चलाकर रोज़ी कमाएँ, उनके अलावा एक बहुत बड़ी. संख्या उन औरतों की भी है (और वह दिन प्रति दिन ज़्यादा हो

. (७०६00 शशा॥000 शा। ४श्वां॥8०, 7. 82()

90 फरदा

रही है) जो अपनी ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए दूसरे सांधन रखती हैं और पार्ट टाइम वेश्याओं का काम भी करती हैं, ताकि आमदनी में कुछ और वृद्धि हो जाए। ये पेशेवर वेश्याओं से कुछ भी भिन्‍न नहीं हैं, परन्तु इस नाम को उनपर थोपा नहीं जाता हम उनको गैर-पेशेवर वेश्याएँ (,५०४०ए० |208707०5) कह सकते हैं।

““इन शौक़ीन या गैर-पेशेवर वेश्याओं की अधिकता आजकल जितनी है, उतनी कभी थी। समाज के नीचे से लेकर ऊपर तक हर वर्ग में ये पाई जाती हैं। अगर उन इज़्ज़तदार औरतों को कहीं इशारे में भी वेश्या' कह दिया जाए तो वे आपे से बाहर हो जाएँगी, मगर उनकी नाराज़गी से हक़ीक़त नहीं बदल सकती। हक़ीक़त बहरहाल यही है कि उनमें और पकावली की किसी बड़ी से बड़ी निर्लज्ज वेश्या में भी नैतिक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है -- अब जवान लड़की के लिए बद-चलनी और बेबाकी, बल्कि बाज़ारू तौर- तरीक़े तक फ़ैशन में दाख़िल हो गए हैं और सिग्रेट पीना, तेज़ नशीली शराबें इस्तेमाल करना, होंठों पर लाली लगाना, सेक्स और गर्भनिरोध के बारे में अपनी जानकारी को प्रकट करना, अश्लील साहित्य पर बातें करना, ये सब चीज़ें भी उनके लिए फ़ैशन बनी हुई हैं -- ऐसी लड़कियों और औरतों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है जो शादी से पहले यौन सम्बन्ध बिना झिझक क़ायम कर लेती है, और वे लड़कियाँ अब बहुत कम हैं जो चर्च की क्ुर्बानगाह के सामने विवाह का पवित्र बन्धन बाँधते वक़्त सचमुच कुँवारी होती हों।” 5

आगे चलकर यह लेखक उन कारणों की समीक्षा करता है जिन्होंने हालात इस हद तक पहुँचा दिए हैं, और ज़्यादा मुनासिब यही है कि इस समीक्षा को भी उसी के शब्दों में प्रस्तुत कर दिया जाए -

“सबसे पहले ,श्रृंगार के उस शौक़ को लीजिए जिनके कारण हर

लड़की में नए फ़ैशन के कीमती वस्त्रों और सौन्दर्य बढ़ाने के विभिन्न -

प्रकार के प्रसाधनों की असीम लालसा पैदा हो गई है। यह उस

परदा 786

अव्यवस्थित अश्लीलता के कारणों में से एक बड़ा कारण है। हर व्यक्ति, जो देखनेवाली आँखें रखता है, इस बात को आसानी से देख सकता है कि वे सैंकड़ों-हज़ारों लड़कियाँ, जो उसके सामने प्रंतिदिन गुज़रती हैं, सामान्यतः इतने क्रीमती कपड़े पहने हुए होती हैं कि उनकी वैध कमाई किसी तरह भी ऐसे पहनावों का भार वहन

नहीं कर सकती, इसलिए आज भी यह कहना उतना ही उचित है,

जितना आधी सदी पहले उचित था, कि मर्द ही उमके लिए कपड़े ख़रीदते हैं। अन्तर सिर्फ़ यह है कि पहले जो मर्द उनके लिए कपड़े ख़रीदते थे, वे उनके शौहर या बाप-भाई होते थे और अब उन्रकी जगह कुछ दूसरे लोग होते हैं।'”

“औरतों की आज़ादी का भी इन हालात के उत्पन्न होने में बहुत कुछ दख़ल है। पिछले कुछ सालों में लड़कियों पर से माँ-बाप की सुरक्षा निगरानी इस हद तक कम हो गई है कि तीस-चालीस साल पहले लड़कों को भी इतनी आज़ादी हासिल थी जितनी अब लड़कियों को हासिल है।””

“एक और महत्तवपूर्ण कारण, जो समाज में बड़े पैमाने पर यौन- उच्छृंखलता फैलाने का साधन बना, यह है कि औरतें दिन प्रति दिन बढ़ती संख्या में तिजारती कारोबार, दफ़्तरी नौकरियों और बहुत-से दूसरे पेशों में दाख़िल हो रही हैं जहाँ रात दिन उनको मर्दों के साथ घुलने-मिलने का मौक़ा मिलता है। इस चीज़ ने औरतों और मर्दों के नैतिक स्तर को बहुत गिरा दिया है। पुरुष की आक्रामकता के मुक़ाबले में औरत की प्रतिरक्षात्मक शक्ति को बहुत कम कर दिया है और दोनों पक्षों के वासनात्मक सम्बन्ध को सारे नैतिक बन्धनों से मुक्त करके रख दिया है। अब जवान लड़कियों के दिमाग़ में शादी और पाकदामन ज़िंदगी का ख़याल आता ही नहीं। आज़ादाना 'आनन्द-विहार' जिसे पहले कभी आवारा क्षिस्म के मर्द ढूँढते फिरते थे, आज हर लड़की उसकी खोज करती फिरती है। शील और कुँवारेपन को एक पुराने ज़माने की दक्रियानूसी चीज़ समझा

92

फ्त्दा

जाता है और आधुनिक युग की लड़की उसको एक मुसीबत ख़याल करती है। उसके नज़दीक जीवन का आनन्द यह है कि जवानी के दौर में नफ़्स की लज़्ज़तों का जाम ख़ूब जी भरकर पिया जाए। इसी

चीज़ की खोज में वह नाच घरों, नाइट क्लबों, होटलों और काफ़ी |

हाउसों के चक्कर लगाती है और इसी की खोज में बह बिल्कुल

अजनबी मर्दों के साथ कार की सैर के लिए भी जाने पर तैयार हो .

जाती है। दूसरे शब्दों में वह जान-बूझकर ख़ुद अपनी इच्छा से अपने आपको ऐसे माहौल में और ऐसी स्थिति में पहुँचा देती है और पहुँचाती रहती है जो वासनात्मक भावनाओं को भड़कानेवाली है, और फिर उसके जो स्वाभाविक परिणाम हैं उनसे घबराती नहीं, बल्कि उनका स्वागत करती है।

प्रदा

93

अध्याय-6 निर्णायक प्रश्न

हमारे देश में और इसी तरह दूसरे पूर्वी देशों में भी जो लोग परदे का विरोध करते हैं, उनके सामने असूल में ज़िंदगी का वही नक़शा है जो पिछले पृष्ठों में सामने आया है। इसी ज़िंदगी की तड़क-भड़क ने उनकी चेतना को प्रभावित किया है। यही विचारधाराएँ, यही नैतिक सिद्धान्त और यही भौतिक और इन्द्रिय-सम्बन्धी लाभ और आनन्द हैं जिनके उज्जवल पक्ष ने उनके दिल दिमाग़ को अपील किया है। परदे से उनकी नफ़रत इसी आधार पर है कि इसका बुनियादी नैतिक-दर्शन उस पश्चिमी-दर्शन के बिल्कुल विपरीत है जिसपर ये ईमान लाए हैं और व्यावहारिक रूप से उन लाभों और लज़्ज़तों के हासिल करने में बाधक है जिनको इन लोगों ने अपना मक़सद बनाया है। अब यह सवाल कि इस जीवन-दर्शन के अंधकास्पूर्ण पहलू यानी इसके व्यावहारिक परिणामों को भी ये लोग क़बूल करने के लिए तैयार हैं या नहीं ? तो इस सिलसिले में वे एकमत नहीं हैं।

एक गरोह उन परिणामों को जानता है और उन्हें क़बूल करने के लिए तैयार है। हक़ीक़त में उसके नज़दीक यह भी पाश्चात्य-जीवनशैली का उज्जवल पक्ष ही है, कि अंधकाएपूर्ण पक्ष।

दूसरा गरोह इस पक्ष को अंधकारपूर्ण समझता है, इन परिणामों को क़बूल करने के लिए तैयार नहीं है, परन्तु उन लाभों पर बुरी तरह आसकत है जो इस जीवनशैली के साथ जुड़े हुए हैं।

तीसरा गरोह तो सिद्धान्तों ही को समझता है, उनके परिणामों को जानता है और ही इस बात पर सोच-विचार करने का कष्ट उठाना चाहता है कि इन सिद्धान्तों और इन परिणामों के बीच क्‍या ताल्लुक़ है। उसको तो बस बह काम कराना है जो दुनिया में हो रहा है।

ये तीनों गरोह आपस में कुछ इस तरह घुल-मिल गए हैं कि बातें करते

फ4 प्रदा

वक़्त कभी-कभी यह पहचानना मुश्किल हो जाता है कि हम जिसे सम्बोधित कर रहे हैं, वह वास्तव में किस गरोह से ताल्लुक़ रखता है। इसी घाल मेल के 'कारण आमतौर से बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ता है। इस लिए ज़रूरत है कि इनको छाँटकर एक-दूसरे से अलग किया जाए और हर एक से उसकी हैसियत के मुताबिक़ बात की जाए।

पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित पूर्वी जन

पहले गरोह के लोग उस दर्शन और उन दृष्टिकोणों पर और उन सांस्कृतिक सिद्धान्तों पर पूरी सूझ-बूझ के साथ ईमान लाए हैं जिनपर पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति की आधारशिला रखी गई है। वे उसी दिमाग़ से सोचते हैं और उसी दृष्टि से जीवन की समस्याओं को देखते हैं जिससे आधुनिक यूरोप के निर्माताओं ने देखा और सोचा था, और वे ख़ुद अपने-अपने देशों के सांस्कृतिक जीवन को भी उसी पाश्चात्य नक़्शे पर निर्मित करना चाहते हैं। औरत की शिक्षा का सबसे ऊँचा लक्ष्य उनके निकट वास्तव में यही है कि वह कमाने के लायक़ हो जाए और साथ ही दिल लुभाने की कला से भी भरपूर परिचित हो जाए। परिवार में औरत की सही हैसियत उनके नज़दीक वास्तव में यही है कि वह मर्द की तरह परिवार का कमानेवाला सदस्य बने और संयुक्त बजट में अपना हिस्सा पूरा-पूरा अदा करे। समाज में औरत का वास्तविक स्थान उनकी राय में यही है कि वह अपने सौन्दर्य, अपने श्रृंगार और अपनी अदाओं से सामूहिक जीवन में एक कोमल अवयब की वृद्धि करे, अपने मधुर बोलों और बातों से दिलों में गर्मी पैदा करे, अपने संगीत से कानों में रस भर दे, अपने नृत्य से आत्माओं को भाव-विभोर कर दे और थिरक-थिर्ककर अपने शरीर की सारी ख़ूबियाँ इंसानों को दिखाए, ताकि उनके दिल ख़ुश हों, उनकी निगाहें आनन्द लें और उनके ठंडे ख़ून में थोड़ी-सी गर्मी जाए।

राष्ट्रीय जीवन में औरत का काम उनके विचार में वास्तव में इसके सिवा कुछ नहीं है कि वह सामाजिक कार्य करती फिरे, म्युनिसिपैलिटियों और कौंसिलों में जाए, कार्स्फ्रेंसों और कांग्रेसों में शरीक हो, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में अपना समय और दिमाग़ लगाए,

पर्दा 95

व्यायामों और खेलों में भाग ले, तैराकी, दौड़, कूद-फांद और लम्बी-लम्बी उड़ानों में रिकार्ड तोड़ दे। अर्थात्‌ वह सब कुछ करे जो घर से बाहर है और उससे कुछ मतलब रखे जो घर के भीतर है। इस जीवन को वे आदर्श जीवन समझते हैं। उनके नज़दीक दुनिया की तरक़क़ी का यही रास्ता है और इस रास्ते पर जाने में जितनी पुरानी सांस्कृतिक विचारधाराएँ बाधक हैं, वे सब की सब सिर्फ़ बकवास और बिल्कुल ग़लत हैं। इस नई ज़िंदगी के लिए पुराने नैतिक मूल्यों (॥(०7७॥ ५७४८४) को उन्होंने इसी तरह नए मूल्यों से बदल लिया है जिस तरह यूरोप ने बदला है। भौतिक लाभ और शारीरिक आनन्द भोग उनकी निगाह में ज़्यादा, बल्कि मौलिक महत्त्व रखते हैं और उनके मुक़ाबले में शर्म, पाकदामनी, पवित्रता, नैतिकता, दाम्पत्य जीवन की वफ़ादारी, वंश की रक्षा और इसी तरह की दूसरी तमाम चीज़ें सिर्फ़ यह कि निरर्थक और मूल्यहीन हैं, . बल्कि दक़रियानूसी और अंधविश्वास के ढकोसले हैं, जिन्हें समाप्त किए बिना तरक़क़ी का क़दम आगे नहीं बढ़ सकता |

ये लोग असूल में पाश्चात्य जीवन-व्यवस्था के सच्चे अनुयायी हैं, और जिस सिद्धांत को इन्होंने स्वीकार किया है उसको उन तमाम उपायों से, जो यूरोप में इससे पहले अपनाए जा चुके है, पूर्वी देशों में फैलाने की कोशिश कर रहे हैं।

नया साहित्य

सबसे पहले उनके साहित्य को लीजिए जो दिमाग़ों को तैयार करनेवाली सबसे बड़ी ताक़त है। इस तथाकथित साहित्य - वास्तव में असाहित्य - में पूरी कोशिश इस बात की की जा रही है कि नई पीढ़ी के सामने इस नए नैतिक दर्शन को सुसज्जित करके पेश किया जाए और पुराने नैतिक मूल्यों को दिल दिमाग़ की एक-एक रग से खींचकर निकाल डाला जाए। उदाहरण स्वरूप मैं यहाँ नए साहित्य से कुछ नमूने पेश करूँगा -

हिन्दुस्तान की एक मशहूर मासिक पत्रिका में, जिसको साहित्यिक दृष्टि से

इस देश में काफ़ी महत्त्व प्राप्त है, एक लेख छपा है, जिसका शीर्षक है 'शीरीं का सबक़। लेख लिखनेवाले एक ऐसे साहब हैं जो उच्च शिक्षा प्राप्त,

96 * यरदा

साहित्य-जगत्‌ में विख्यात और एक बड़े पद पर आसीन हैं, लेख का सार यह है कि एक नौजवान लड़की अपने शिक्षक से सबक़ पढ़ने बैठी है और पढ़ाई के दौरान अपने एक नौजवान दोस्त का मुहब्बतनामा (प्रेम-पत्र) शिक्षक के सामने पढ़ने और सलाह देने के लिए पेश फ़रमाती है। उस दोस्त से उसकी मुलाक़ात किसी चाय पार्टी में हो गई थी। वहाँ किसी लेडी ने परिचय की रस्म अदा कर दी। उस दिन से मेल-जोल और पत्राचार का सिलसिला शुरू हो गया। अब लड़की यह चाहती है कि शिक्षक महोदय उसको इस दोस्त के मुहब्बतनामों का “नैतिक उत्तर' लिखना सिखा दें। शिक्षक कोशिश करता है कि लड़की को इन बेहूदा बातों से हटाकर पढ़ने की ओर प्रेरित करे। लड़की जवाब देती है कि -

“पढ़ना तो मैं चाहती हूँ, मगर ऐसा पढ़ना जो मेरे जागते के सपनों

की आकांक्षाओं में कामियाब होने में मदद दे। ऐसा पढ़ना जो मुझे

अभी से बुढ़िया बना दे ।”'

शिक्षक पूछता है, “क्या इन साहब के अलावा तुम्हारे और भी कुछ नौजवान दोस्त हैं?”

लायक़ शागिर्द जवाब देती है, “कई हैं, मगर उस नौजवान में यह विशेषता है कि बड़े मज़े से झिड़क देता है।'”

शिक्षक कहता है कि “अगर तुम्हारे बाप को तुम्हारे इस पत्राचार का पता चल जाए तो क्या हो?!

लड़की जवाब देती है, ' क्या बाप ने जवानी में इस प्रकार के पत्र लिखे होंगे? अच्छे-ख़ासे फ़ैशनेबुल हैं | क्या ताज्जुब है कि अब भी लिखते हों, ख़ुदा करे बूढ़े नहीं हो गए हैं।''

शिक्षक कहता है कि “अब से पचास वर्ष पहले तो यह ख़याल भी असम्भव था कि किसी शरीफ़ लड़की को मुहब्बत का ख़त लिखा जाए।

शरीफ़ज़ादी जवाब देती हैं, “तो क्या उस ज़माने के लोग सिर्फ़ बबनज़ातों से ही मुहब्बत करते थे, बड़े मज़े में थे उस ज़माने के

फ्र्दा करा

बदज़ात (नीच) और बड़े बदमाश थे उस ज़माने के शरीफ़

“शीरी' के आख़िरी शब्द, जिनपर लेखक ने मानो अपने साहित्यिक दार्शनिकता की तान तोड़ी है, ये है -

“हम लोगों (यानी नौजवानों) की दोहरी ज़िम्मेदारी है। वे ख़ुशियाँ, जो हमारे बुज्ुर्ग खो चुके हैं, ज़िंदा करें और वे गुस्से और झूठ की आवदिरतें जो ज़िदा हैं, उन्हें दफन कर दें।'”

एक और प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका में अब से डेढ़ साल पहले एक लघु कथा पशेमानी' (पश्चात्ताप) शीर्षक से प्रकाशित हुई थी जिसका सार सीधे- सादे शब्दों में यह था कि एक शरीफ़ ख़ानदान की बिन ब्याही लड़की एक आदमी से आँख लड़ाती है। अपने बाप की ग़ैर-मौजूदगी और माँ के अनजाने में उसको चुपके से ब्रुला लेती है। अवैध सम्बन्ध के परिणामस्वरूप गर्भ ठहर जाता है। इसके बाद चह अपने इस नापाक काम को सही और ठीक ठहराने के लिए मन ही मन में यूँ तर्क देती है --

“मैं परेशान क्यों हूँ? मेरा दिल क्यों धड़कता है? क्या मेरी आत्मा मुझे धिक्‍्कारती है? क्या मैं अपनी.कमज़ोरी पर लज्जित हूँ? शायद हाँ। लेकिन उस रोमानी चाँदनी रात की दास्तान तो मेरी ज़िंदगी की

, किताब में सुनहरे शब्दों में लिखी हुई है। जवानी के मस्त लम्हों की

उस याद को तो अब भी मैं अपना सबसे ज़्यादा प्रिय ख़ज़ाना समझती हूँ। क्या मैं इन लम्हों को वापस लाने के लिए अपना सब कुछ देने के लिए तैयार नहीं?

“फिर क्यों मेरा दिल धड़कता है? क्या गुनाह के डर से? क्या मैंने गुनाह किया? नहीं, मैंने गुनाह नहीं किया। मैंने किसका गुनाह किया? मेरे गुनाह से किसको नुक्सान पहुँचा? मैंने तो क्ुरबानी की, कुरबानी उसके लिए। काश कि मैं उसके लिए और भी क्रुरबानी करती। गुनाह से मैं नहीं डरती। लेकिन शायद मैं इस चुड़ैल सोसायटी से डरती हूँ। इसकी कैसी-कैसी अर्थपूर्ण सन्दिग्ध भरी नजरें मुझपर पड़ती हैं।”

98

परदा

“आखिर मैं इससे क्यों डरती हूँ? अपने गुनाह की वजह से? लेकिन मेरा गुनाह ही क्या है? क्‍या जैसा मैंने किया, ऐसा ही समाज की कोई और लड़की करती? वह सुहानी रात और वह तन्हाई ! वह कितना सुन्दर था ! उसने कैसे मेंरे मुँह पर अपना मुँह रख दिया और अपनी गोद में मुझे खींच लिया, भींच लिया। उफ़, उसके गर्म और ख़ुश्बूदार सीने से मैं किस इत्मीनान से चिमट गई। मैंने सारी दुनिया डुकरा दी और अपना सब कुछ ऐश के लम्हों पर तज दिया। फिर क्या हुआ? कोई और क्या करता? कया दुनिया की कोई औरत उस वक़्त उसको ठुकरा सकती थी?”

““गुनाह? मैंने हरगिज़ गुनाह नहीं किया। मैं हरगिज़ शर्मिन्दा नहीं हूँ।

मैं फिर वही करने को तैयार हूँ... पाकदामनी? पाकदामनी है क्या? सिर्फ़ कुँबारपन? या ख़यालों की पाकीज़गी ? मैं कुँवारी नहीं रही, - लेकिन क्या मैंने अपनी पाकदामनी (सतीत्व) खो दी?”

“फ़सादी चुड़ैल सोसायटी को जो कुछ करना हो कर ले। बह मेरा क्या कर सकती है? कुछ नहीं। मैं उसकी मूर्खतापूर्ण उँगली उठाने से क्यों झेंपूँ ? मै उसकी कानाफूसी से क्यों डरूँ? क्यों अपना चेहरा पीला कर लूँ? मैं उसके निरर्थक मज़ाक़ से क्यों मुँह छिपाऊँ? मेरा दिल कहता है कि मैंने ठीक किया, अच्छा किया, ख़ूब किया | फिर मैं क्यों चोर बनूँ ? क्यों खुल्लम-खुल्ला एलान कर दूँ कि मैंने ऐसा किया और अच्छा किया ?”'

यह तर्कशैली और सोचने का यह अन्दाज़ है जो हमारे ज़माने का नया साहित्यकार हर लड़की--शायद ख़ुद अपनी बहन और बेटी को भी--सिखाना चाहता है। उसकी शिक्षा यह है कि एक जवान लड़की को चाँदनी रात में जो गर्म सीना भी मिल जाए, उससे उसको चिमट जाना चाहिए, क्योंकि इस स्थिति में यही एक काम का तरीक़ा मुमकिनहै और जो औरत भी ऐसी हालत में हो, वह इसके सिवा कुछ कर ही नहीं सकती | यह काम गुनाह नहीं बल्कि क्रुरबानी है और इससे पाकदामनी (सतीत्व) पर भी कोई आँच नहीं आती। भला ख़यालात की पाकीज़गी के साथ कुँवारापन क्ुरबान कर देने से भी कहीं

फ्र्दा 99

पाकदामनी जाती होगी ! इससे तो पाकदामनी में और बढ़ोत्तरी होती है, बल्कि यह एक ऐसा शानदार कारनामा है कि एक औरत की ज़िंदगी में सुमहरी शब्दों से लिखा जाना चाहिए और उसकी कोशिश यह होनी चाहिए कि उसकी सारी 'किताबे-ज़िन्दगी (जीवनचर्या) ऐसे ही सुनहरी शब्दों में लिखी हुई हो। रही सोसायटी, तो वह अगर ऐसी पाकदामन औरतों पर उँगली उठाती है, तो बह फ़सादी और चुड़ैल है। अपराधी वह ख़ुद है कि ऐसी त्याग-प्रवृत्तिवाली लड़कियों पर उँगली उठाती है, कि वह लड़की जो एक़ रोमानी रात में किसी खुली गोद के अन्दर भींचे जाने से इंकार करे। ऐसी ज़ालिम सोसायटी, जो इतने अच्छे काम को बुरा कहती है, हरगिज़ इसकी हक़दार नहीं कि उससे डरा जाए और यह नेक काम करके उससे मुँह छिपाया जाए। नहीं, हर लड़की को एलानिया और बेबाकाना इस श्रेष्ठ आचरण नैतिकता का प्रदर्शन करना चाहिए और ख़ुद शर्मिन्दा होने के बजाए हो सके तो उलटा सोसाइटी को शर्मिन्दा करना चाहिए -- यह हिम्मत और साहस कभी बाज़ार में बैठनेवाली वेश्याओं को भी नसीब था, क्योंकि इन अभागिनों. के पास ऐसा नैतिक दर्शन था जो पाप को पुण्य और पुण्य को पाप कर देता। उस समय की वेश्या पाकदामनी तो बेचती थी, मगर अपने आपको ख़ुद रुसवा और गुनाहगार समझती थी --- मगर अब नया साहित्य हर घर की बहू और बेटी को पहले ज़माने की वेश्याओं से भी दस क़दम आगे पहुँचा देना चाहता है, क्योंकि यह बदमाशी अश्लील कर्म को सहाय देने के लिए एक नया नैतिक-दर्शन पैदा कर रहा है।

एक और पत्रिका में, जिसको हमारे देश के साहित्यिक क्षेत्रों में बड़ी लोकप्रियता मिली हुई है, एक कहानी 'देवर' के नाम से छंपी है। लेखक एक ऐसे साहब हैं जिनके स्वर्गीय पिता को औरतों के लिए बेहतरीन नैतिक साहित्य तैयार करने का श्रेय प्राप्त था और इसी ख़िदमत की वजह से शायद वे हिन्दुस्तान की उर्दू पढ़ानेवाली औरतों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय बुल्लु्ग थे।

इस कहानी में नौजवान साहित्यकार एक ऐसी लड़की के चरित्र को ख़ुशनुमा बनाकर अपनी बहनों के लिए नमूने के तौर पर पेश करते हैं, जो शादी से पहले ही अपने 'देवर की भरपूर जवानी और शबाब के हंगामों' का ख़याल

400 फ्रदा

करके अपने जिस्म में थरथरी' पैदा कर लिया करती थी और कुँबारपने से ही उसका नज़रिया यह था कि “जो जवानी ख़ामोश और सुकून के साथ गुज़र जाए उसमें और बुढ़ापे में कोई फ़र्क़ नहीं। मेरे नज़दीक तो जवानी के लिए हंगामे ज़रूरी हैं जिनका स्रोत हुस्न इश्क़ का संघर्ष है।'' इस दृष्टिकोण और इन इरादों को लिए हुए जब यह लड़की ब्याही गई तो अपने दाढ़ीवाले शौहर को देखकर उसकी भावनाओं पर ओस पड़ गई और उन्होंने पहले से सोचे हुए नक़शे के मुताबिक़ फ़ैसला कर लिया कि अपने शौहर के सगे भाई से दिल लगाएगी। अतएव बहुत जल्द ही इसका मौक़ा गया। शौहर साहब तालोम हासिल करने के लिए विलायत चले गए और उनके पीछे बीबी ने शौहर की और भाई मे भाई की ख़ूब दिल खोलकर और मज़े ले-ले कर ख़ियानत की। कहानीकार ने इस कारनामे को ख़ुद उस अपराधी लड़की के क़लम से लिखा है। वह अपनी सहेली को, जिसकी अंभी शादी नहीं हुई है, अपने तमाम करतूत अपनी क़लम से लिखकर भेजती है और वे तमाम मरहले ख़ूब विस्तार से बयान करती है जिससे गुज़रकर देवर और भाभी की यह आशनाई आख़िरी मरहले तक पहुँची। मन और देह की जितनी स्थितियाँ औरत-मर्द के मिलने की हालत में घटित हो सकती हैं, उनमें से किसी एक को भी बयान करने से वह नहीं चूकती। बस इतनी कसर रह गई है कि सम्भोग क्रिया की तस्वीर नहीं खींची गई। शायद इस 'कोताही में भी यह बात नज़रों में होगी कि पढ़नेवाले और पढ़मे वालियों की कल्पनाशक्ति थोड़ा-सा कष्ट उठाकर ख़ुद ही उसकी ख़ाली जगह को पूरी कर लेगी। *

इस नए साहित्य का अगर फ्रांस के उस लिट्रेचर से मुक्ताबला किया जाए. जिसके कुछ नमूने हमने इससे पहले पेश किए हैं, तो साफ़ नज़र आएगा कि यह क़ाफ़िला उसी रास्ते से उसी मंज़िल की ओर जा रहा है, उसी जीवन-व्यवस्था के लिए ज़ेहनों को सैद्धान्तिक और नैतिक रूप से तैयार किया जा रहा है, और निशाना ख़ास तौर से औरतों की ओर है, ताकि उनके अन्दर शर्म का कुछ अंश भी छोड़ा जाए।

. परवा ]0]

आधुनिक संस्कृति

यह नैतिक अवधारणा और यह जीवन-दर्शन मैदान में अकेला नहीं है। इसके साथ पूँजीवादी सांस्कृतिक व्यवस्था और पाश्चात्य लोकतंत्र के उसूल भी सम्मिलित हो गए हैं और ये तीनों ताक़तें मिल-जुलकर ज़िंदगी का वही नक्शा बना रही हैं जो पश्चिमी जगतू में बन चुका है। सेक्‍स पर बहुत घटिया क़िस्म का अश्लील साहित्य तैयार किया जा रहा है जो स्कूलों और कालेजों के पढ़नेवालों और पढ़नेवालियों तक व्यापक रूप से पहुँचता है। नंगी और बेहया औरतों की तस्वीरें हर अख़बार, हर रिसाले, हर घर और हर दुकान की ज़ीनत (शोभा) बन रही हैं। घर-घर और बाज़ार-बाज़ार ग्रामोफ़ोन के वे रिकार्ड बज रहे हैं. जिनमें बड़े घटिया और गन्दे गीत भरे जाते हैं। सिनेमा का सारा कारोबार वासनात्मक भावनाओं को भड़काने पर चल रहा है और सिनेमा के परदे पर बेहयाई और गन्दगी को इतना सजाकर पेश किया जाता है कि हर लड़की और लड़के की निगाह में ऐक्टरों और ऐक्ट्रेसों की ज़िंदगी आदर्श बनकर रह जाती है। इन शौक़ और तमन्ना बढ़ानेवाले खेलों को देखकर दोनों लिंगों के नौजवान जब 'तमाशाघर से निकलते हैं तो उनके बेचैन वलवले हर ओर इश्क़ और रोमांस के मौक्े ढूँढने लगते हैं। ये सब लाभ कमाने की विविध पूँजीवादी शक्लें हैं। इसी पूँजीवादी जीवन-व्यवस्था की वजह से बड़े शहरों में वे हालात तेज़ी के साथ पैदा होते चले जा रहे हैं जिनमें औरतों के लिए अपनी रोज़ी आप कमाना ज़रूरी हो जाता है। और इसी ज़ालिमाना व्यवस्था की मदद पर गर्भ-निरोध का प्रोपगंडा अपनी दवाओं और अपने उपकरणों के साथ मैदान में गया है।

आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था ने, जिसकी बरकतें ज़्यादातर इंग्लैंड और फ्रांस के माध्यम से पूर्वी देशों तक पहुँची हैं, एक ओर औरतों के लिए राजनीतिक और सामूहिक सरगर्मियों के रास्ते खोल दिए हैं, दूसती ओर ऐसी संस्थाएँ क़ायम की हैं जिनमें औरतों और मर्दों के सम्मिश्रित होने की शक्लें अनिवार्यत: पैदा होती हैं, और तीसरी तरफ़ क़ानून के बन्धन इतने ढीले कर दिए हैं कि बेहयाई केवल ज़ाहिर ही नहीं की जाती, बल्कि उसपर अमल करना भी अधिकतर हालात में अपराध नहीं है।

402 प्रदा

इन हालात में जो लोग खुले दिल के साथ ज़िंदगी के इस रास्ते पर जाने का फ़ैसला कर चुके हैं, उनकी नैतिकता और उनके रहन-सहन में क़रीब-क़रीब पूरा इन्क्रिलाब चुका है। उनकी औरंतें अब ऐसे पहनावों में निकल रही हैं कि हर औरंत पर फ़िल्म ऐक्ट्रेस का धोखा होता है। उनके अन्दर पूरी बेबाकी पाई जाती है, बल्कि पहनावों के नंगेपन, रंगों की शोख़ी, बनाब-सिंगार के एहतिमाम और एक-एक अदा से साफ़ मालूम होता है कि लैंगिक चुम्बक बनने के सिवा कोई दूसरा मक़सद उन औरतों की नज़र के सामने नहीं है। शर्म का यह हाल है कि नहाने का कपड़ा पहनकर मर्दों के साथ नहाना, यहाँ तक कि इस हालत में अपने फ़ोटो खिंचवाना और अख़बारों में छपवा देना भी इस वर्ग की किसी शरीफ़ औरत के लिए शर्म की बात नहीं है, बल्कि शर्म का सवाल वहाँ सिरे से पैदा ही नहीं होता। आधुनिक नैतिक धारणाओं की दृष्टि से मानव शरीर के सब अंग बराबर हैं। अगर हाथ की हथेली और पाँव के तलवे को खोला जा सकता है, तो आख़िर शर्मगाह (रान को आख़िरी हिस्से तक खोल देना) और स्तनों के उभार को दिखाने में ही क्या हरज है ? ज़िंदगी का मज़ा जिसके ज़ाहिर होने का संकलित नाम आर्ट है, उन लोगों के नज़दीक हर नैतिक बन्धन से स्वतंत्र, बल्कि अपने आप में नैतिकता का मापदण्ड है | इसी वजह से बाप और भाई उस वक़्त ख़ुशी और गर्व के मारे फूले नहीं समाते जब उनकी आँखों के सामने कुँवारी बेटी और बहन स्टेज पर नाच-गाना और प्रेमिका के रूप में अदाकारी के कमालात दिखाकर सैंकड़ों जोशीले दर्शकों और सुननेबालों से वाहवाही लूटती है। भौतिक कामयाबी, जिसका दूसरा नाम 'जीवन का लक्ष्य है, उनकी राय में हर उस संभव चीज़ से ज़्यादा क्रीमती है जिसे क्ुरबान करके यह चीज़ हासिल की जा सकती हो | जिस लड़की ने इस मूल उद्देश्य को हासिल करने की योग्यता और सोसायटी में लोकप्रिय होने की योग्यता जुटा ली, उसने अगर पाकदामनी गँवादी तो गोया कुछ भी नहीं खोया, बल्कि सब कुछ पा लिया | इसी लिए यहं बात किसी तरह उनकी समझ में आती ही नहीं कि किसी लड़की का लड़कों के साथ स्कूल या कॉलेज में पढ़ना या जवानी की हालत में अकेले शिक्षा प्राप्त करने के लिए यूरोप जाना आख़िर क्यों एतिराज़ के क्राबिल हो।

परदा [03

गे

पाश्चात्य संस्कृति के समर्थकों से फ़ैसला

ये हैं वे लोग जो परदे पर सबसे ज़्यादा एतियज़ करते हैं। इनके निकट यह परदा एक ऐसी तुच्छ, बल्कि पूर्णतः बेकार चीज़ है कि इसका मज़ाक़ उड़ा देना और फ़बतियाँ कस देना ही इसे रद्द कर देने के लिए काफ़ी दलील है। लेकिन यह रवैया बिलकुल ऐसा ही है, जैसे कोई व्यक्ति इंसानी चेहरे पर सिरे से नाक की ज़रूरत ही का क़ायल हो, और इस आधार पर वह हर उस आदमी का मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दे जिसके चेहरे पर उसे नाक नज़र आए। इस तरह की जिहालत भरी बातों से सिर्फ़ जाहिल ही रोब में सकते हैं। उनको, अगर वे अक़्ल से काम लें, यह समझना चाहिए कि हमारे और उनके दर्मियान असूल में मूल्यों का बुनियादी मतभेद है। जिन चीज़ों को हम क्रीमती समझते हैं, वे उनके नज़दीक मूल्यहीन हैं, इसलिए अपने मूल्य-स्तर की दृष्टि से जिस व्यवहार-शैली को हम ज़रूरी समझते हैं, वे यक्नीनन उनकी निगाह में क्तई तौर पर रैर-ज़रूरी, बल्कि ब्रेकार की चीज़ ठहरना ही चाहिए। परन्तु बुनियादी मतभेद की शक्ल में वह सिर्फ़ एक अल्प बुद्धि आदमी ही हो सकता है जो मतभेद की असल बुनियाद पर बात करने के बजाए छोटी-छोटी बातों पर हमला शुरू कर दे।

इंसानी मूल्यों के निर्धारण में निर्णायक चीज़ अगर कोई है तो वे प्राकृतिक क़ानून हैं। प्रकृति के क़ानूनों के लिहाज़ से इंसान की बनावट जिस चीज़ का तक़ाज़ा करे और जिस चीज़ में इंसान की भलाई और उसका हित हो, बही असूल में क़द्र की हक़दार है। आइए इस पैमाने पर जाँचकर देख लें कि मूल्यों के मतभेद में हम सही रास्ते पर हैं या आप हैं? ज्ञानपरक दलीलें जो कुछ आपके पास हों, आप उन्हें ले आएँ और जो दलीलें हम रखते हैं, उन्हें हम पेश करते हैं। फिर सीधे-सच्चे और अक़्ल से सोचने-समझनेवाले इंसानों की तरह देखिए कि वज़न किस तरफ़ है। इस तरीक़े से अगर हम अपने मूल्यों के पैमाने को सही साबित कर दें तो आपको इख़्तियार है, चाहे इन मूल्यों को अपनाएँ, जो बुद्धि और ज्ञान पर आधारित हैं, चाहे उन्हीं मूल्यों के पीछे पड़े रहें जिन्हें सिर्फ़ नफ़्स की ख़ाहिश की वजह से आपने पसन्द किया है। मगर इस दूसरी स्थिति में आपकी अपनी स्थिति इतनी कमज़ोर हो जाएगी कि हमारी व्यवहार- शैली की हँसी उड़ाने के बजाए आप ख़ुद अपनी हँसी उड़वाने के हक़दार बनकर रह जाएँगे।

]04 फरदा

दूसरा गरोह

इसके बाद हमारे सामने दूसरा गरोह आता है। पहले गरोह में तो, रैर- मुस्लिम और तथाकथित मुसलमान, दोनों क्रिस्म के लोग शामिल हैं। मगर इस दूसरे गरोह में तमाम मुसलमान शामिल हैं| इन लोगों में आजकल आधा-परदा और आधी बे-परदगी का एक अजीब मिश्रण इस्तेमाल हो रहा है। ये जैसे बीच में लटके हुए लोग हैं, इधर के हैं, उधर के हैं। एक ओर तो ये अपने भीतर इस्लामी भावनाएँ रखते हैं। अख़्लाक़, तहज़ीब, शराफ़त और अच्छे चरित्र की उन कसौटियों को मानते हैं जिनको इस्लाम ने पेश किया है। अपनी औरतों को शर्म और पाकदामनी के ज़ेवरों से सजा हुआ और अपने घरों को अख़लाक़ी गन्दगियों से पाक रखने के इच्छुक हैं और उन नतीजों को क़बूल करने के लिए तैयार नहीं हैं जो पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के नियमों के पालन से पैदा हुए हैं और होने चाहिएँ। परन्तु दूसरी ओर इस्लामी सामाजिक व्यवस्था के नियमों और क़ानूनों को तोड़कर कुछ रुकते, कुछ झिझकते उसी गस्ते की ओर अपनी बीवियों, बहनों और बेटियों को लिए चले जा रहे हैं जो पाश्चात्य सभ्यता का रास्ता है। ये लोग इस ग़लतफ़हमी में हैं कि आधे पाश्चात्य और आधे इस्लामी तरीक़ों को इकट्ठा करके ये दोनों सभ्यताओं के फ़ायदे और लाभ एकत्र कर लेंगे। यानी इनके घरों में इस्लामी अख़लाक़ भी सुरक्षित रहेंगे, इनकी ख़ानदानी ज़िंदगी की व्यवस्था भी बची रहेगी और इसके साथ इनकी सामाजिकता अपने भीतर पाश्चात्य सामाजिकता की बुराइयाँ नहीं, बल्कि सिर्फ़ उसकी मनमोहकता, उसकी लज़्ज़तों और उसके भौतिक लाभों को जमा कर लेगी। लेकिन प्रथमत:ः तो अलग-अलग मक़्सदवाली और अलग-अलग बुनियादोंवाली सभ्यताओं की आधी-आधी शाखाएँ काटकर पैवन्द लगाना ही ठीक नहीं, क्योंकि इस तरह के बेजोड़ मेल से दोनों के फ़ायदों के जमा होने के बजाए दोनों के नुक़्सानों के जमा हो जाने की ज़्यादा संभावना है। दूसरे यह भी अक़ल और प्रकृति के विरुद्ध है कि एक बार इस्लाम की मज़बूत नैतिक व्यवस्था के बन्धन ढीले करने और लोगों को क़ानून तोड़ने का आनन्द दिला देने के बाद आप इस सिलसिले को उसी हद पर रोक रखेंगे जिसको आपने जुक़्सान से ख़ाली समझ रखा है। यह आधे नंगे पहनावों का रिवाज, यह

फ्र्दा 05

बनाव-सिंगार का शौक़, यह दोस्तों की महफ़िलों में बेबाकी के शुरुआती तजुर्बि, यह सिनेमा और नंगी तस्वीरों और प्रेम कहानियों से बढ़ती हुई दिलचस्पी, यह पश्चिमी ढंग पर लड़कियों की तालीम बहुत मुमकिन है कि अपना तत्काल प्रभाव दिखाए, बहुत मुमकिन है कि मौजूदा नस्ल उसके नुक़्सानों से बच जाए। लेकिन यह समझना भी कि आगे की नसस्‍्लें भी इससे सुरक्षित रहेंगी, एक खुली नादानी है। संस्कृति और सामाजिकता में हर ग़लत तरीक़े की शुरुआत बहुत मासूम होती है, मगर एक नस्ल से दूसरी नस्ल और दूसरी नस्ल से तीसरी नस्ल तक पहुँचते-पहुँचते वही छोटी-सी शुरुआत एक भयानक ग़लती बन जाती है। ख़ुद यूरोप और अमरीका में भी जिन ग़लत बुनियादों पर सामाजिकता को नए सिरे से संगठित किया गया था, इसके नतीजे फ़ौरन नहीं प्रकट हो गए थे, बल्कि इसके पूरे-पूरे नतीजे अब तीसरी और चौथी पीढ़ी में ज़ाहिर हुए हैं। अत: यह पाश्चात्य और इस्लामी तरीक़ों का मेल और यह आधी बे-परदगी असल में कोई स्थायी और टिकाऊ चीज़ नहीं है। असल में इसका फ़ितरी रुझान पाश्चात्यवाद के चरम की ओर है और जो लोग इस तरीक़े पर चल रहे हैं उनको समझ लेना चाहिए कि उन्होंने फ़िलहाल इस सफ़र , की शुरुआत की है, जिसकी आख़िरी मंज़िल तक अगर वह नहीं तो उनकी औलाद और औलाद की औलाद पहुँचकर रहेगी।

निर्णायक प्रश्न

ऐसी हालत में क़दम आगे बढ़ाने से पहले इन लोगों को ख़ूब सोच- विचार करके एक बुनियादी सवाल का फ़ैसला कर लेना चाहिए, जो संक्षिप्त रूप में नीचे दिया जा रहा है -

क्या आप पाश्चात्य सामाजिकता के इन नतीजों को क़बूल करने के लिए तैयार हैं जो यूरोप और अमरीका में ज़ाहिर हो चुके हैं और जो इस सामाजिकता के फ़ितरी और यक़ीनी नतीजे हैं? क्या आप इसको पसन्द करते हैं कि आपके समाज में भी वही उत्तेजक और वासनात्मक माहौल पैदा हो ? आपकी क्रौम में भी इसी तरह निर्लज्जता, व्यभिचार और अश्लीलता का बाहुल्‍य हो? गुप्त रोगों की बबाएँ फैलें? परिवार और घर की व्यवस्था बिखर जाए? तलाक़ और अलगाब का ज़ोर हो? नौजवान मर्द और औरतें आज़ादाना तौर पर अपनी

406 परदा

वासना पूरी करने लगें? गर्भनिरोध, गर्भपात और भ्रूण हत्या करने से नस्‍्लें तबाह की जाएँ? नौजवान लड़के और लड़कियाँ सीमा से बढ़ी हुई बासनाओं में अपनी बेहतरीन अमली ताक़तों को बर्बाद और अपने स्वास्थ्य को ख़राब करें? यहाँ तक कि कमसिन बच्चों तक में वक़्त से पहले सेक्स भरे रुझान पैदा होने लगें और इससे उनके मानसिक और शारीरिक विकास में शुरू ही से गड़बड़ी पैदा हो जाया करे ?

अगर भौतिक लाभों और इन्द्रिय आनन्दों के लिए आप इन सब चीज़ों को गवारा करने के लिए तैयार हैं तो बे-झिझक पाश्चात्य सभ्यता के रास्ते पर तशरीफ़ ले जाइए और इस्लाम का नाम भी ज़बान पर लाइए। इस रास्ते पर जाने से पहले आपको इस्लाम से सम्बन्ध-विच्छेद का एलान करना होगा, ताकि आप बाद में इस नाम को इस्तेमाल करके किसी को धोखा दे सकें और आपकी रुसवाइयाँ इस्लाम और मुसलमानों के लिए अपमान और शर्म का कारण बन सकें।

लेकिन अगर आप इन नतीजों को क़बूल करने के लिए तैयार नहीं हैं, अगर आपको एक ऐसी नेक और पवित्र संस्कृति की ज़रूरत है जिसमें अच्छे अख़लाक़ और ख़ूबियाँ परवरिश पा सके, जिसमें इंसान को अपनी मानसिक, आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति के लिए एक सुकून भरा माहौल मिल सके, जिसमें औरत और मर्द पाशविक भावनाओं की बाधाओं से सुरक्षित रहकर अपनी बेहतरीन क्षमता के मुताबिक़ अपने-अपने सांस्कृतिक कर्त्तव्य अंजाम दे सकें, जिसमें संस्कृति की आधारशिला, यानी परिवार, पूरी मज़बूती के साथ क्लायम हो, जिसमें नस्‍लें सुरक्षित रहें और नस्ल की भ्रष्टता का फ़ितना पैदा हो, जिसमें इंसान की घरेलू ज़िंदगी उसके लिए सुकून राहत की जनत और उसकी औलाद के लिए मुहब्बत भरी तर्बियत का गहवारा और परिवार के सारे सदस्यों के लिए आपसी सहकारी समिति हो, तो इन मक़्सदों के लिए आपको पाश्चात्य सभ्यता के रास्ते का रुख़ भी करना चाहिए, क्योंकि वह बिल्कुल विपरीत दिशा को जा रहा है और पश्चिम की ओर चलकर पूर्व की ओर पहुँच जाना अक्ल की दृष्टि से असम्भव है। अगर हक़ीक़त में आपके मक़सद यही हैं तो आपको इस्लाम का रास्ता अपनाना चाहिए।

मगर इस रास्ते पर क़दम रखने से पहले आपको उन असन्तुलित भौतिक

परदा 407

लाभों और इन्द्रिय आनन्द की तलब अपने दिल से निकालनी होगी जो. पाश्चात्य सभ्यता के आकर्षक दृश्यों को देखकर पैदा हो गई है। उन दृष्टिकोणों और विचारधाराओं को भी अपने दिमाग़ से निकाल देना होगा जो यूरोप से आपने उधार ले रखी हैं। उन तमाम उसूलों और मक़्सदों को भी छोड़ना पड़ेगा, जो पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति से आयात किए गए हैं। इस्लाम अपने अलग उसूल और मक़सद रखता है। उसके अपने स्थायी सामाजिक सिद्धांत हैं। उसने वैसी ही एक सामाजिक व्यवस्था का गठन किया है जैसा कि उसके मक़्सदों, उसके उसूलों और उसके सामाजिक सिद्दान्तों का फ़ितरी तक़ाज़ा है। फिर इस सामाजिक व्यवस्था की संरक्षा वह एक ख़ास अनुशासन और एक ख़ास ज़ाब्ते के ज़रीए से करता है, जिसको मुक्ररर करने में हद दर्ज की हिक्मत और इंसानी इच्छाओं और मानसिकताओं की पूरी रिआयत ध्यान में रखी गई है, जिसके बिना यह सामाजिक व्यवस्था बिखराव और टूट-फूट से बची नहीं रह सकती। यह अफ़लातून के लोकतंत्र की तरह कोई काल्पनिक व्यवस्था (0५०४४) नहीं है, बल्कि साढ़े तेरह सदियों के ज़बरदस्त इम्तिहान में पूरी उतर चुकी है और इस लम्बी मुद्दत में किसी मुल्क और किसी क्रौम के अन्दर भी उसके असर की वजह से उन ख़राबियों का दसवाँ हिस्सा भी ज़ाहिर नहीं हुआ है, जो पाश्चात्य सभ्यता के असर से सिर्फ़ एक सदी के अन्दर पैदा हो चुकी हैं। अतः अगर इस सुदृढ़ और आज़माई हुई सामाजिक व्यवस्था से आप लाभ उठाना चाहते हैं तो आपको उसके नियम और उसके अनुशासन की पूरी-पूरी पाबंदी करनी होगी, और यह हक़ आपको हरगिज़ हासिल होगा कि अपनी अक़्ल से निकाले हुए या दूसरों से सीखे हुए अधपके विचारों और बिना आज़माए हुए तरीक़ों को, जो इस सामाजिक व्यवस्था के स्वभाव और उसकी प्रवृत्ति के बिलकुल ख़िलाफ़ हों, अकारण उसमें ठूसने की कोशिश करें।

तीसरा गरोह चूँकि मूर्खों और ग़फ़लत के शिकार लोगों का है, जिनमें ख़ुद सोचने-समझने और राय क़ायम करने की योग्यता ही नहीं है, इसलिए वह किसी तवज्जोह का हक़दार नहीं | बेहतर यही है कि हम उसे नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ें।

08 परदा

अध्याय-7 प्रकृति के कानून

प्रकृति ने तमाम जीवों की तरह इंसान को भी “जोड़ों' यानी दो ऐसे लिंगों में पैदा किया है जो एक-दूसरे की ओर स्वाभाविक आकर्षण रखते हैं। परन्तु दूसरे जीवधारियों का जिस हद तक अध्ययन किया गया है, उससे मालूम होता है कि उनमें इस लैंगिक बँटवारे और इस स्वाभाविक आकर्षण का उद्देश्य सिर्फ़ वंश परुपरा को बाक़ी रखना है। इसी लिए उनमें यह आकर्षण केवल इस हद तक रखा गया है जो हर जाति को ब्राक़ी रखने के लिए ज़रूरी है, और उनकी प्रकृति में ऐसी नियंत्रण-शक्ति रुख दी गई है जो उन्हें लैंगिक-सम्बन्धनों में उस निश्चित सीमा हद से आगे नहीं बढ़ने देती | इसके विपतीत इंसान में यह आकर्षण असीम, अनियंत्रित और दूसरे तमाम जीवों से बढ़ा हुआ. है इसके लिए समय और मौसम की कोई पाबन्दी नहीं इसके स्वभाव में कोई ऐसी नियन्त्रण-शक्ति भी नहीं है जो उसे किसी सीमा पर रोक दे। इसके विपरीत मर्द और औरत एक-दूसरे के लिए स्थायी आकर्षण रखते हैं। उनके भीतर एक- दूसरे को आकर्षित करने और आकर्षित होने और लैंगिक आकर्षण के असीम साधन जुया दिए गए हैं। उनके मन में आपसी प्रेम और इश्क़ की एक ज़बरदस्त माँग रख दी गई है। उनके जिस्म की बनावट और उसके अनुपात, रंग-रूप और उसके स्पर्श और उसके एक-एक अंग में विपरीत लिंग के लिए आकर्षण पैदा कर दिया गया है। उनकी आवाज़, रफ़्तार, चाल-ढाल, अदा, हर एक चीज़ में खींच लेने की शक्ति भर दी गई है, और आस-पास की दुनिया में भी बहुत-सी ऐसी चीज़ें पैदा कर दी गई हैं जो दोनों की वासनाओं को उभारती और उन्हें एक-दूसरे की ओर खींचती हैं। हवा की सरसराहट, पानी का बहाव, घार्सो की हरियाली, फूलों की महक, चिड़ियों के चहचहे, गगन की घटाएँ, चाँदनी रात की सौम्यता और मनोहरता, मतलब यह कि प्राकृतिक सौन्दर्य का कोई दृश्य और कायनात की सुन्दरता की कोई भी छवि ऐसी नहीं है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष इस प्रेरणा का कारण बनती हो।

प््द्य है 09

फिर इंसान की शारीरिक व्यवस्था का जायज़ा लीजिए तो मालूम होगा कि इसमें ताक़त का जो बहुत बड़ा ख़ज़ाना रखा गया है, वह एक ही वक़्त में जीवन-शक्ति और क्रिया-शक्ति भी है और लैंगिक सम्बन्ध-शक्ति भी। वही ग्रंथियाँ ((0]970$) जो उसके अंगों को जीवन-रस (म्र्यणणा) देती हैं और उसमें चुस्ती, ऊर्जा, बौद्धिक-शक्ति और क्रिया-शक्ति पैदा करती हैं। उन्हीं के सुपुर्द यह सेवा भी की गई है कि उसमें लैंगिक सम्बन्ध की शक्ति भी पैदा करें। इस शक्ति को हरकत में लाने वाली भावनाओं को विकसित करें, उन भावनाओं को उभारने के लिए सौन्दर्य, रूप, निखार और सज-धज के अलग- अलग प्रकार के उपकरण जुटाएँ और इन उपकरणों से प्रभावित होने की क्षमता उसकी आँखों, उसके कानों और उसकी सूँघने और छूनेवाली इन्द्रियों, यहाँ तक कि उसकी कल्पना-शक्ति तक में जुटा दें।

प्रकृति की यही क्रियाशीलता इंसान की भीतरी ताक़तों में भी दिखाई देती है। उसके मन में जितनी प्रेरक शक्तियाँ पाई जाती हैं, उन सबका नाता दो शक्तिशाली प्रेरणाओं से होता है। एक वह प्रेरणा जो उसे ख़ुद अपने अस्तित्व की रक्षा और अपने व्यक्तित्व की सेवा पर उभारती है। दूसरी वह प्रेरणा जो उसको अपने विपरीत लिंग से ताल्लुक़ रखने पर मजबूर करती है। जवानी के दिनों में, जबकि इंसान की अमली ताक़तें अपने पूरे उत्थान पर होती हैं, यह दूसरी प्रेरणा इतनी मज़बूत होती है कि कभी-कभी वह पहली प्रेरणा को भी दबा लेती है और इंसान इतना ज़्यादा उसका असर लेता है कि उसे अपनी जान तक गँवा देने और अपने आपको जानते-बूझते तबाही के गढ़े में डाल देने में कोई झिझक महसूस नहीं होती।

संस्कृति-रचना में यौनाकर्षण का असर

यह सब कुछ किस लिए है ? कया सिर्फ़ नस्ल को बाक़ी रखने के लिए ? नहीं। क्योंकि इंसानी नस्ल को बाक़ी रखने के लिए इस मात्रा में नस्ल पैदा करने की भी ज़रूरत नहीं जितनी मछली, बकरी या ऐसे ही दूसरे जानदारों के लिए है। फिर क्या कारण है कि प्रकृति ने उन सब जानदारों से ज़्यादा लैंगिक आकर्षण इंसान में रखा है और उसके लिए सबसे ज़्यादा उभारने-उकसाने के साधन जुटा

40 पर्दा

दिए हैं? क्या यह सिर्फ़ इंसान के भोग-विलास और लज्ज़त लेने के लिए है ? यह भी नहीं। प्रकृति ने कहीं भी आनन्द और भोग-विलास को निरा उद्देश्य नहीं बनाया है। वह तो किसी बड़े मक़सद की सेवा पर इनसान और पशु को मजबूर करने के लिए लज़्ज़त और मज़े को सिर्फ़ चाशनी के तौर पर लगा देती है ताकि वे इस सेवा को पराया नहीं बल्कि अपना काम समझ कर करें। अब सोचिए कि इस मामले में कौन-सा बड़ा मक़सद प्रकृति के सामने है? आप जितना सोचेंगे कोई और कारण इसके सिवा समझ में आएगा कि प्रकृति, दूसरे सारे जीवों के विपरीत, इंसानी नस्ल को सभ्य बनाना चाहती है। इसी लिए इंसान के दिल में लैंगिक प्रेम इश्क़ की वह प्रेरणा रखी गई है, जो केवल शारीरिक सम्बन्ध तथा नस्ल बढ़ाने ही का तक़ाज़ा करती है, बल्कि एक स्थायी सहवास, हार्दिक मिलाप और रूहानी लगाव की माँग भी करती है।

इसी लिए इंसान में यौनाकर्षण उसकी यौन-क्रिया-शक्ति से बहुत ज़्यादा रखा गया है। उसमें जितनी कामेच्छा और यौनाकर्षण रखा गया है, अगर उसी अनुपात से बल्कि एक और दस के अनुपात से भी वह नस्ल बढ़ाने में लगे तो उसकी सेहत बिगड़ जाए और स्वाभाविक उम्र तक पहुँचने से पहले ही उसकी शारीरिक शक्तियाँ समाप्त हो जाएँ। यह बात इस वास्तविकता की खुली हुई दलील है कि इंसान में लैंगिक आकर्षण की अधिकता का होना इसलिए नहीं है कि वह सारे पशुओं से बढ़कर लैंमिक-क्रिया करे, बल्कि इसका तात्पर्य औरत और मर्द को एक-दूसरे के साथ बाँधे रखना, और उनके आपसी ताल्लुक़ में स्थायित्व और मज़बूती पैदा करना है।

इसी लिए औरत के स्वभाव में यौनाकर्षण और वासनात्मक इच्छा के साथ-साथ शर्म, हया, झिझक, फ़रार और रुकावट का तत्त्व रखा गया है जो न्यूनाधिक प्रत्येक औरत में पाया जाता है। यह फ़रार और मना करने का भाव. चद्यपि दूसरे जानदारों की मादा में भी दीख पड़ता है, परन्तु इंसान की स्त्री-जाति में इसकी शक्ति और मात्रा बहुत ज़्यादा है और उसको शर्म हया की भावनाओं के द्वारा और ज़्यादा उभार दिया गया है। इससे भी मालूम होता है कि इंसान में लैंगिक आकर्षण का उद्देश्य स्थायी सम्बन्ध पैदा करना है, यह कि हर लैंगिक आकर्षण का नतीजा यौन-क्रिया ही हो।

परदा ]]

इसी लिए इंसान के बच्चे को तमाम जानवरों के बच्चों से ज़्यादा कमज़ोर और बेबस पैदा किया गया है। दूसरे जानदारों के विपरीत, इंसान का बच्चा कई साल तक माँ-बाप के संरक्षण और देख-रेख का मुहताज होता है और उसमें अपने आपको संभालने और अपनी मदद आप करने की क्षमता बहुत देर में पैदा होती है। इसका भी मक़सद यह है कि औरत और मर्द का ताल्लुक़ सिर्फ़ बासना का ताल्लुक़ रहे, बल्कि इस ताल्लुक़ का नतीजा यह निकले कि वे आपस में जुड़े रहने, एक दूसरे का साथ देने और सहयोग करने पर मजबूर्‌ हों |

इसी लिए इंसान के दिल में औलाद की मुहब्बत तमाम जानदारों से ज़्यादा रखी गई है। दूसरे जानदार थोड़े दिनों तक अपने बच्चों की देख-रेख करने के बाद उनसे अलग हो जाते हैं, फिर उनमें कोई नाता बाक़ी नहीं रहता, बल्कि वे एक-दूसरे को पहचानते भी नहीं। इसके विपरीत इंसान आरंभिक पालन-पोषण का समय बीत जाने के बाद भी औलाद की मुहब्बत में जकड़ा रहता है। यहाँ तक कि यह मुहब्बत औलाद की औलाद तक चलती रहती है और इंसान का स्वार्थी स्वभाव भी इस मुहब्बत के असर से इतना ज़्यादा पराजित हो जाता है कि वह जो कुछ अपने लिए चाहता है, उससे कहीं ज़्यादा अपनी औलाद के लिए चाहता है, और उसके दिल में भीतर से यह उमंग पैदा होती है कि संभावना की अंतिम सीमा तक औलाद के लिए बेहतर-से-बेहतर जीवन- साधन जुटाए और अपनी मेहनतों के फल उनके लिए छोड़ जाए। इस तीत्र प्रेम- भावना के पैदा करने से प्रकृति का मक़सद सिर्फ़ यही हो सकता है कि औरत और भर्द के लैंगिक सम्बन्ध को एक स्थायी सम्बन्ध में बदल दे। फिर उस स्थायी सम्बन्ध को एक ख़ानदान के गठन का साधन बनाए। फिर ख़ूनी रिश्तों से मुहब्बत का सिलसिला बहुत-से ख़ानदानों को ससुराली रिश्तों से आपस में बाँधता चला जाए। फिर मुहब्बतों और महबूबों का मेल उनके बीच सहयोग और सहातुभूति का सम्बन्ध पैदा कर दे और इस तरह एक समाज और एक सांस्कृतिक व्यवस्था अस्तित्व में जाए।

संस्कृति की बुनियादी समस्या इससे मालूम हुआ कि यह यौनाकर्षण जो इंसानी जिस्म की नस-नस और

42 परदा

उसके दिल आत्मा के कोने-कोने में रखा गया है और जिसकी मदद के लिए बड़े विस्तृत पैमाने पर विश्व के चप्पे-चप्पे में साधन और प्रेरणाएँ जुटाई गई हैं, इसका मक़सद मनुष्य की वैयक्तिकता को सामाजिकता की ओर अग्रसर करना है। प्रकृति ने इस रुझान को इंसानी संस्कृति की असल प्रेरक-शक्ति बनाया है। इस रुझान आकर्षण के ज़रीए इंसान की दो जातियों (औरत और मर्द) में लगाव और सम्बन्ध पैदा होता है और फिर इस लगाव और सम्बन्ध से सामाजिक ज़िंदगी की शुरुआत होती है।

जब यह बात साबित हो गई तो यह बात भी स्वत: स्पष्ट हो गई कि औरत-मर्द के ताल्लुक़ का मसला असल में संस्कृति का बुनियादी मसला है और इसी के सही या ग्रलत हल पर संस्कृति का सुधार या बिगाड़, उसकी तरक़क़्ी या गिरावट और उसकी मज़बूती या कमज़ोरी निर्भर करती है। मानव- जाति के इन दोनों हिस्सों में एक ताल्लुक़ हैवानी (या दूसरे शब्दों में ख़ालिस वासनाओं से भरा हुआ) है, जिसका मक़्सद इंसानी नस्ल को बाक़ी रखने के अलावा और कुछ नहीं, और दूसरा ताल्लुक़ इंसानी है, जिसका मक़सद यह है कि दोनों मिलकर संयुक्त उद्देश्यों के लिए अपनी-अपनी क्षमताओं और अपनी-अपनी प्राकृतिक योग्यताओं के मुताबिक़ सहयोग करें) इस सहयोग के लिए उनका लैंगिक प्रेम एक संयोजक माध्यम के रूप में काम देता है और वे हैवानी तथा इंसानी तत्त्व, दोनों मिलकर एक ही वक़्त में उनसे संस्कृति का कारोबार चलाने की सेवा भी लेते हैं और इस कारोबार को जारी रखने के लिए अतिरिक्‍त व्यक्तियों को उपलब्ध करने की सेवा भी। संस्कृति का बनाव बिगाड़ इस बात पर निर्भर है कि इन दोनों तत्त्तों का मेल बिलकुल ठीक और संतुलित हो।

अच्छी संस्कृति के आवश्यक तत्त्व

आइए, अब हम इस मामले का विश्लेषण करके यह मालूम करें कि अच्छी संस्कृति के लिए औरत और मर्द के हैवानी और इंसानी ताल्लुक़ में संतुलित और जंचे-तुले मेल की शक्ल क्या है और इस मेल पर असन्तुलन की 'किन-किन शक्लें के पैदा होने से संस्कृति में बिगाड़ पैदा हो जाता है।

पर्दा दि 4]3

_. लैंगिक आकर्षण का संतुलन